________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
२६ ]
[ आचाराङ्ग-सूत्रम् इन्द्रिय और मन की सहायता की अपेक्षा रखे बिना ही रूपी द्रव्यों को जानने वाला शान अवधि-शान कहलाता है । अवधिज्ञानी संख्यात या असंख्यात भवों को जान सकता है।
मन वाले प्राणियों के मन की पर्यायों को जानने वाला ज्ञान मनःपर्याय ज्ञान कहलाता है। यह शान संयम की शुद्धि से उत्पन्न होता है । इस ज्ञान के द्वारा भी संख्यात या असंख्यात भवों को जाना जा सकता है।
लोक के रूपी-अरूपी सकल द्रव्यों की सकल पर्यायों को जानने वाला ज्ञान केवलज्ञान कहलाता है । इसके द्वारा अनन्त भवों का ज्ञान हो सकता है।
मतिज्ञानावरण के विशिष्ट क्षयोपशम के कारण आत्मा में ऐसे संस्कार जागृत हो जाते हैं जिनके कारण पूर्वभव का स्मरण हो पाता है। यह स्मरण जातिस्मरण शान कहलाता है। इस शान के द्वारा नियमतः संख्यात भव जाने जा सकते हैं ।
यहाँ सन्मति या स्वमति शब्द के पूर्व 'सह' शब्द दिया गया है। वह सम्बन्ध-वाची है। वह यह सूचित करता है कि आत्मा और मति का तादात्म्य सम्बन्ध है । अर्थात् आत्मा का स्वभाव ज्ञानरूप है । ज्ञान आत्मा का गुण है और शान-गुण का गुणी आत्मा है ।गुण और गुणी में तादात्म्य सम्बन्ध होता है । वैशेषिक दर्शन गुण और गुणी को भिन्न २ मानकर समवाय सम्बन्ध के द्वारा उनका सम्बद्ध होना मानता है। इसका निराकरण करने के लिए 'सह' शब्द दिया गया है जो यह सूचित करता है कि मति (शान ) सदा आत्मा के साथ रहती ही है । आत्मा के साथ हमेशा शान के रहने पर भी ज्ञानावरण कर्म के प्रबल आवरण के कारण विशिष्ट शान नहीं हो पाता।
स्वमति का अर्थ है अपनी बुद्धि । इसके साथ 'सह' शब्द लगाने का अभिप्राय यह है कि जैसे 'अपना घोड़ा' इस प्रयोग में अपने से भिन्न घोड़े के लिए भी 'अपना' शब्द लगाया जाता है -इस तरह 'स्व' शब्द से पूरा तादात्म्य नहीं मालूम होता! तादात्म्य सूचित करने के लिए 'सह' विशेषण दिया गया है।
'सहसम्मति' पद को सुखपूर्वक समझाने के लिए टीकाकार ने इस विषय का दृष्टान्त दिया है । वसन्तपुर नगर में जितशत्रु नाम का राजा था । धारिगी नामकी उसकी पत्नी थी। उनके धर्मरुचि नामक पुत्र था। किसी समय राजा का चित्त वैराग्य से रंग गया और वह तापसी दीक्षा ग्रहण करने के लिए उद्यत हुआ। उसने अपने पुत्र को सिंहासन पर आरूढ करने का निश्चय किया। राजकुमार ने अपनी माता से पूछा कि पिताजी ! राज्यश्री का त्याग क्यों कर रहे हैं ? इसके उत्तर में माता ने कहा कि राज्य लक्ष्मी चञ्चल है । इसमें अनेक कूट-कपट की चाले चलनी पड़ती हैं। यह स्वर्ग और अपवर्ग के साधन में अर्गलाभूत है। राज्य के लिए घोरतम पाप भी किये जाते हैं। इससे आत्मा का कल्याण नहीं हो सकता। इससे शाश्वत सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसलिए उस सुख को प्राप्त करने लिए वे राज्य का परित्याग कर रहे हैं ।
माता का यह कथन सुनकर धर्मरुचि बोला--माता ! क्या मैं पिता को अनिष्ट हूँ जो यह पापमय राज्यलक्ष्मी मुझे दे रहे हैं ? जिस राज्य को अहित कर और दुखवर्धक जानकर वे छोड़ रहे हैं उसे मैं क्यों ग्रहण करूँ ? मैं भी सुख का अभिलाषी हूँ अतः मैं भी पिता के साथ ही आश्रम में जाऊँगा।
For Private And Personal