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अष्टम अध्ययन प्रथमोद्देशक ]
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बाह्य निमित्तों की आवश्यकता होती है। जितने अंश में बाह्य संयोग उपादान की शुद्धि में सहायक होते हैं उतने ही अंश में उनकी महत्ता है। मूल वस्तु उपादान की शुद्धि है और इसीके लिए प्रयत्न करना चाहिए । उपादान की शुद्धि के बिना बाह्य संयोग कुछ कारगर नहीं होते । जंगल में जाकर भी एक व्यक्ति अपने मानसिक विचारों से नया संसार खड़ा कर सकता है जब कि विवेकी व्यक्ति वसति में रहकर भी निर्लेप रह सकता है। अतएव विवेक को धर्म का मूल कहा गया है।
- सर्वज्ञ सर्वदशी प्रभु महावीर ने उपादान की शुद्धि के लिए तीन यामों का उपदेश दिया है। याम का अर्थ व्रत होता है । यहाँ यह शंका होती है कि प्रभु महावीर ने तो पांच व्रतों का उपदेश दिया है फिर यहाँ तीन व्रतों का उल्लेख कैसे किया गया है ? इसका समाधान यह है कि यहाँ तीन व्रतों से अहिंसा, सत्य और अपरिग्रह से तात्पर्य है। अपरिग्रह व्रत में अचौर्य और ब्रह्मचर्य का अन्तर्भाव हो जाता है। तात्विक दृष्टि से इसमें कोई विरोध नहीं है । 'सत्य' परमलक्ष्य है और उसे प्राप्त करने के लिए अहिंसा और अपरिग्रह दो साधन हैं। अपरिग्रह का अर्थ निर्ममत्वभाव है। जैसे जैसे जीवन में निर्ममत्वभाव आता जाता है वैसे वैसे अहिंसा जीवन में उतरती जाती है । जब तक ममत्वभाव है वहाँ तक अहिंसा की सच्ची आराधना असंभव है। निर्ममत्वभाव के विकास में सम्पत्ति का मोह और स्त्री ये दो प्रबल बाधाएँ हैं । जो व्यक्ति निर्मम बनना चाहता है वह सर्वप्रथम सम्पत्ति का मोह और स्त्री को अवश्यमेव छोड़ेगा ही। इसके बिना निर्ममता पा नहीं सकती। इस दृष्टि से अपरिग्रह व्रत में अचौर्य और ब्रह्मचर्य का समावेश हो जाता है।
अथवा "उपरयते संसारभ्रमणादिभिरिति यामाः" संसार भ्रमण से जिनके द्वारा विश्राम मिलता है वे याम हैं । इस व्युत्पत्ति के द्वारा ज्ञान, दर्शन और चारित्र ये तीन याम कहे जा सकते हैं। टीकाकार ने याम का अर्थ अवस्था ( वय ) भी लिया है । लेकिन यहाँ व्रत अर्थ सुसंगत होता है।
सूत्रकार ने कहा है कि आर्यपुरुष इन व्रतों का महत्व समझ कर इनके पालन में सावधान रहते हैं। यहाँ यह अर्थ फलित होता है कि जो हेय पदार्थों को छोड़कर इन व्रतों को अपने जीवन में उतारता है वही आर्य है । आर्य का अर्थ कोई क्षेत्र या पन्थ नहीं है । जो भी आर्य बनना चाहता है उसे इन व्रतों का पालन करने में सावधान रहना चाहिए ।
जीवन में आर्यता और दिव्यता प्रकट करने के लिए यह आवश्यक है कि कषायों पर विजय प्राप्त की जाय । जब तक कषायों का शमन नहीं होता वहाँ तक व्रतों का पालन नहीं होता है और इसके बिना जीवन में आर्यता प्रकट नहीं होती है। यहाँ यह शंका हो सकती है कि क्रोधादि कषायों के साथ द्वन्द्व तो सम्पूर्ण वीतरागता की प्राप्ति के पूर्वक्षण तक चलता रहता है तो साधक उस पर विजय कैसे प्राप्त कर सकता है और जब तक यह पूर्णावस्था नहीं प्राप्त होती तब तक क्या वह आर्य नहीं कहा जा सकता है ? क्या तब तक एक साधक और एक सामान्य प्राणी समकक्ष हैं ? इसका समाधान यह है कि यद्यपि कषाय वीतराग अवस्था के पूर्वक्षण तक रहते हैं तदपि जो साधक है, उसका लक्ष्य कषायों से द्वन्द्व करके उन पर विजय प्राप्त करना होता है जबकि सामान्य व्यक्ति कषायों से युद्ध न करके उनके वश में हो जाता है। साधक प्रथम बार या बार-बार भी कषायों से युद्ध करता हुआ हार जावे यह सम्भव है तो भी वह युद्ध बन्द नहीं करता है । वह प्रतिदिन अधिक शक्ति-संचय करता जाता है और एक दिन वह आता है जबकि वह प्रबल वेग से कषायों को निर्मल कर देता है और विजेता बन जाता है। सच्ची दिव्यता और प्रार्यता कषायादि विकारों पर विजय पाने में ही है। ऐसा विजेता पापकर्मों से मुक्त हो जाता है। जो इन से हार
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