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[ आचाराङ्ग-सूत्रम्
भावार्थ - प्रवादियों का प्रसंग प्राप्त होने पर साधक मुनि उन्हें संक्षेप में इस प्रकार कहे कि " जगह पापकर्म हो रहे हैं, मैं उन्हें लांघकर स्थिर हूँ । यही आपमें और मुझ में भेद है । सर्वज्ञानी भगवान् कहा है कि यदि विवेक हो तो ग्राम में अथवा जंगल में, कहीं भी धर्म हो सकता है और यदि विवेक न हो तो चाहे जंगल में चला जाय अथवा गांव में रहे तो भी धर्म की आराधना नहीं हो सकती है । सर्वदर्शी भगवान् ने धर्म की आराधना के लिए तीन प्रकार के यामों (व्रतों) का कथन किया है । पुरुष इन तत्वों के रहस्य को समझ कर सदा सावधान रहते हैं । जो क्रोधादि कषायों के वेग को शान्त कर शीतल हो गये हैं वे पापकर्मों से अलग रहते हैं और निदानरहित होते हैं ।
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विवेचन - कदाग्रही वादियों के साथ विवाद में उतरने पर साधक को भी कदानह का चेप लगने की सम्भावना रहती है इसलिए ऐसे प्रसंगों पर मौन रखने का अथवा तो सत्यधर्म को जिस रूप में स्वयं
समझा है उस रूप को शान्तभाव से व हितबुद्धि से उन्हें समझाने का सूत्रकार ने फरमाया है । सूत्रकार यह स्पष्ट करते हैं कि दूसरों को सत्य समझाते हुए किस शैली का आश्रय लिया जाय ? वे स्पष्ट फरमाते हैं कि सच्चा साधक सत्य समझाते हुए किसी की निन्दा नहीं करता । वह व्यक्तिगत आक्षेपों से दूर रहता है । वह वाणी पर ऐसा संयम रखता है कि उसकी वाणी से किसी को आघात न पहुँचे । ऐसे साधक में तो मिध्या आवेश होता है और न दूसरों की निन्दा करने की भावना । वह तो सत्य को समझने और समझाने की कोशिश करता है।
सच्चा साधक अधर्म का विरोधी होता है और धर्म का समर्थक होता है। दुनिया में उसे जहाँ धर्म दिखाई देता है वह उसे दूर करने की चेष्टा करता है और जहाँ उसे धर्म की झलक दिखाई देती है। उसे वह बिना किसी संकोच के अपना लेता है । विश्व में चलने वाले धर्मों की वह उपेक्षा नहीं कर सकता है। धर्म की ओट में होने वाले पापकर्मों को वह सहन नहीं करता है। वह धर्म और अधर्म के विवेक को स्पष्ट समझता है और समझाता है । वह यह सत्य दृढ़ता के साथ प्ररूपित करता है कि धर्म केवल बाह्य क्रियाकाण्डों में नहीं है लेकिन विवेक में है । जहाँ विवेक है वहाँ धर्म है और जहाँ विवेक नहीं है वहाँ धर्म नहीं हो सकता । विवेक के अभाव में केवल बाह्य क्रियाकाण्डों में माना जाने वाला धर्म, धर्म नहीं वरन धर्म का ढोंग मात्र है ।
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जो व्यक्ति वन में निवास करता है, केवल फलाहार करता है, अज्ञान कष्ट सहन करता है, पानि तप तपता है, भयंकर शीत की वेदना सहता है तदपि यदि उसमें विवेक का अभाव है तो उसकी ये क्रियाएँ उसका विकास नहीं कर सकतीं। इन क्रियामात्र से धर्म की आराधना नहीं हो जाती । धर्म की श्राराधना के लिए आवश्यकता है सत् असत् के विवेक की— कर्त्तव्याकर्त्तव्य के परिच्छेद की । यदि विवेक हैं तो जंगल में जाने की कोई आवश्यकता नहीं है । वह ग्राम में भी धर्माराधन कर सकता है। यही कारण है कि भरत चक्रवर्ती सरीखे महलों में ही कैवल्य प्राप्त कर सके हैं। इसके विपरीत जहाँ विवेक नहीं है तो वन में गमन से क्या प्रयोजन ? यदि वन में जाने से ही कल्याण होता हो तो समस्त वनचर प्राणियों का कल्याण हो जाना चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं होता है । इसलिए मुख्य बात क्रियाकाण्डों की नहीं है। लेकिन विवेक प्रधानता है। विवेक में ही धर्म है - धर्माराधन है ।
इस पर से यह नहीं समझ लेना चाहिए कि बाह्य क्रियाओं की, क्षेत्र की, काल की और अन्य सामग्री की कोई कीमत नहीं है। मूल वस्तु उपादान की शुद्धि है, परन्तु उपादान की शुद्धि के लिए भी
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