SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 547
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५०४ ] www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ आचाराङ्ग-सूत्रम् सर्वमस्ति स्वरूपेण पररूपेण नास्ति च । अर्थात् - सर्व पदार्थ स्वरूप से अस्ति रूप हैं और पररूप से नास्ति रूप हैं । नास्तिकवाद की प्ररूपणा करने वाले आत्मा, स्वर्ग, नरक, पुण्य, पाप आदि का अभाव मानते हैं । वे आत्मा को स्वीकार नहीं करते और पंच भूतों के समुदाय से चैतन्य का आविर्भाव मानते हैं । उनका यह मानना युक्तिसंगत नहीं है। भूत जड़ हैं अतएव उनका कार्य चैतन्य रूप नहीं हो सकता है। पृथक् पृथक् भूत में चैतन्य नहीं है तो वह समुदाय में कैसे हो सकता है ? जैसे बालुका के एक कण में तेल नहीं है तो वह बालुका के समुदाय में भी नहीं है। मृतक शरीर में पाचों भूतों की सत्ता है तदपि वहाँ चैतन्य नहीं होता अतएव यह मानना चाहिए कि चैतन्य भूतों का कार्य नहीं है। चैतन्य गुण वाला श्रात्मा ही है । इस प्रकार आत्मा का अस्तित्व पहले प्रतिपादित किया जा चुका है। आत्मा की सिद्धि हो जाने पर स्वर्ग, नरक, पुण्य और पाप की सत्ता स्वतः सिद्ध हो जाती है । ऊपर जो बात अस्ति रूप और नास्ति रूप के सम्बन्ध में कही गई है वही ध्रुव अध्रुव के सम्बन्ध में भी समझनी चाहिए। सांख्यदर्शन लोक को एकान्त ध्रुव मानता है जब कि बौद्धदर्शन लोक को सर्वथा | जैनदर्शन लोक को ध्रुव ध्रुव उभयरूप मानता है। सांख्यों का कथन है कि जो सत् है वह कदापि नष्ट नहीं होता और जो असत् है वह कदापि उत्पन्न नहीं हो सकता है । अतएव लोक नित्य ही है - उत्पाद - विनाश से रहित है केवल आविर्भाव और तिरोभाव होता रहता है । सांख्यदर्शन की कूटस्थ face की मान्यता युक्तिसंगत नहीं है । पदार्थ का लक्षण अर्थक्रियाकारित्व सभी वादियों को सम्मत है। यह अर्थक्रियाकारित्व कूटस्थ नित्य पदार्थ में नहीं पाया जा सकता है क्योंकि जहाँ क्रिया होती है वहाँ परिणति अवश्य होती हैं । जहाँ परिणति है वहाँ कूटस्थ नित्यता नहीं घटित होती । कूटस्थ नित्य मानने से आविर्भाव और तिरोभाव भी नहीं घट सकते हैं । श्राविर्भाव और तिरोभाव ही वस्तु के कूटस्थ नित्यत्व का विरोध करते हैं । For Private And Personal विश्व के पदार्थों का अवलोकन करने से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि पदार्थमात्र उत्पत्ति, विनाश और स्थिति से युक्त है । तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में उमास्वाति ने कहा है 1 उत्पादव्ययत्रौव्ययुक्तं सत् । अर्थात् — पदार्थ उत्पत्ति, विनाश और स्थिति वाला है। जिसकी उत्पत्ति होती है, जिसका नाश होता है और जो ध्रुव रहता है वह पदार्थ है । जो उत्पन्न नहीं होता, नष्ट नहीं होता और ध्रुव नहीं पदार्थ हो सकता है जैसे आकाश-पुष्प | यह आशंका की जा सकती है कि जो उत्पन्न होता है वह भला कैसे हो सकता है ? इस शंका का समाधान यह है कि उत्पत्ति और विनाश ध्रुवता के विरोधी नहीं हैं परन्तु समर्थक हैं। बिना ध्रुवता के उत्पत्ति और विनाश नहीं होते। इसी तरह ध्रुवता भी उत्पत्ति और विनाश से निरपेक्ष नहीं रह सकती है। जहाँ हम वस्तु में उत्पत्ति और विनाश का अनुभव करते हैं वहाँ पर उसकी स्थिरता का भी अविचल रूप से भान होता है। जहाँ ध्रुवता का भान होता है वहाँ कथञ्चित् उत्पत्ति और विनाश अवश्य प्रतीत होते हैं । उत्पत्ति, विनाश और व्य यह त्रिपुटी एक दूसरे के अभाव में नहीं रहती । ये तीनों ही सापेक्ष हैं। उदाहरण के लिए सुवर्णपिण्ड को ही लीजिए | प्रथम सुवर्णपिण्ड को गलाकर उसका कटक ( कड़ा ) बना लिया गया । कटक का ध्वंस करके उसका मुकुट तैयार किया गया । यहाँ पर सुवर्णपिण्ड के विनाश से कटक की उत्पत्ति और कटक के ध्वंस से मुकुट का उत्पन्न होना देखा गया है । इस उत्पत्ति-विनाश के सिलसिले में मूल वस्तु सुवर्ण
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy