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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अष्टम अध्ययन प्रथमोद्देशक ] की सत्ता बराबर मौजूद है। पिण्डदशा के विनाश और कटक की उत्पत्तिदशा में भी स्वर्ण की सत्ता मौजूद है एवं कटक के विनाश और मुकुट के उत्पाद-काल में भी स्वर्ण बराबर विद्यमान है । इससे यह सिद्ध हुआ कि उत्पत्ति और विनाश वस्तु के आकार-विशेष का होता है न कि मूल वस्तु का । मूल वस्तु तो लाखों परिवर्तन होने पर भी अपनी स्वरूप-स्थिरता से च्युत नहीं होती। कटक-कुण्डलादि स्वर्ण के श्राकार विशेष हैं। इन आकारों का ही उत्पन्न और विनाश होना देखा जाता है। इनका मूल तत्त्व स्वर्ण उत्पत्ति और विनाश दोनों से अलग है । इस उदाहरण से यह प्रतीत हुआ कि पदार्थ में उत्पत्ति, विनाश और स्थिति ये तीनों ही धर्म स्वभावसिद्ध हैं। किसी भी वस्तु का आत्यन्तिक विनाश नहीं होता ! वस्तु की किसी श्राकृति के विनाश से यह नहीं समझ लेना चाहिए कि वह वस्तु सर्वथा नष्ट हो गयी। प्राकृति के बदलने मात्र से किसी वस्तु का सर्वथा नाश नहीं होता। जैसे बाल जिनदत्त, बाल अवस्था को छोड़कर युवा होता है और युवावस्था को छोड़कर वृद्ध होता है। इससे जिनदत्त का नाश नहीं कहा जा सकता है । जैसे सर्प फणावस्था को छोड़कर सरल होता है तो इस आकृति के परिर्वतन से उसका नाश होना नहीं माना जाता है इसी तरह प्राकृति के बदलने से वस्तु का नाश नहीं होता है। इसी तरह कोई भी वस्तु नवीन नहीं उत्पन्न होती है। अतः जगत् के सारे पदार्थ उत्पत्ति-विनाश और स्थितिशील हैं यह प्रमाणित हो जाता है। उत्पाद और व्यय को "पर्याय" और ध्रौव्य को "द्रव्य" के नाम से कहा जाता है। इस तरह वस्तु द्रव्य-पर्यायात्मक है । द्रव्य-स्वरूप नित्य है और पर्याय स्वरूप अनित्य है । कहा भी है: द्रव्यात्मना स्थितिरेव सर्वस्य वस्तुनः, पर्यायात्मना सर्व वस्तूत्पद्यते विपद्यते वा । अर्थात्-द्रव्यरूप से सब पदार्थ नित्य हैं और पर्याय की अपेक्षा से सभी पदार्थ उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं अतएव अनित्य हैं। इस कथन से यह प्रतीत हो जाता है कि वस्तु न तो एकान्त नित्य है और न एकान्त-अनित्य है । परन्तु सापेक्ष दृष्टि से नित्यानित्य है। बौद्ध दर्शन की मान्यतानुसार यदि लोक को सर्वथा क्षणभंगुर और अनित्य मान लिया जाय तो जगत् व्यवहार सब समाप्त हो जाता है । जगत् व्यवहार परस्पर लेनदेन पर अवलम्बित। है मान लीजिए कि जिनदत्त ने देवदत्त से सौ रूपये उधार लिए। ये दोनों क्षण-क्षण में बदल रहे हैं। जिस जिनदत्त ने रूपये लिये हैं और जिस देवदत्त ने रूपये दिये हैं वे दोनों क्षण के बाद ही दूसरे हो गये तो लेनदेन का व्यवहार कैसे चल सकता है ? लेने वाला और देने वाला दोनों ही नहीं रहे तो यह व्यवहार कैसे हो सकता है ? इसी तरह एकान्त अनित्य मानने पर पुण्य, पाप, स्वर्ग, नरक आदि की संगति भी नहीं बनती है। जिस आत्मा ने पाप किया है वह तो पाप करके दूसरे ही क्षण में नष्ट हो गया। उसे उसका फल नहीं मिला । जिसे फल मिलेगा उसने वह कर्म नहीं किया। इस तरह कृत कर्म का विनाश और अकृत कर्म के फल का प्रसंग प्राप्त होगा । यह सब अनिष्ट है। अर्थक्रिया भी एकान्त अनित्य पक्ष में नहीं घटित होती है। अतएव लोक को एकान्त अध्रव भी नहीं मानना चाहिए। यह लोक ध्रुव भी है और अध्रुव भी। द्रव्यापेक्षया ध्रुव है और पर्यायापेक्षया अध्रुव है । एकान्त ध्रुवाध्रुव की मान्यता युक्तिरहित है। कई वादियों ने लोक की आदि कही है। उनका कथन है कि ईश्वर ने लोक की सृष्टि की है। जो चीज कृतक होती है वह सादि सान्त होती है। जैसे घट कुम्भकारकृत है तो वह सादि भी है और सान्त भी है। इसी तरह यह लोक भी ईश्वरादि रचित होने से सादि सान्त है । वस्तु तत्त्व का विचार करने पर For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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