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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अष्टम अभ्ययन प्रथमोदेशक ] [५०३ माना हुआ धर्म ही सच्चा है और इसीसे मुक्ति प्राप्त हो सकती है। अपने धर्म की सचाई सिद्ध करने के लिए वह दूसरे धर्मों की निन्दा करते हैं । इस निन्दा के मार्ग के द्वारा वे अपना धर्मप्रचार करते हैं परन्तु ऐसा करने वाले स्वयं सत्य से पतित होते हैं और असत्य प्ररूपणा द्वारा भोले प्राणियों को पथभ्रष्ट करते हैं। ऐसे कदाग्रही प्रचारक स्वयं डूबते हैं और दूसरों को डुबाते हैं। कदाचित् ऐसे एकान्त दुराग्रही वादियों का प्रसंग प्राप्त हो तो उनके दुराग्रह को मिटाने के लिए और उन्हें सत्य स्वरूप समझाने के लिए स्वपरहितार्थी साधक को उनके साथ वार्तालाप करना चाहिए और उन्हें समझाना चाहिए कि तुम्हारा यह एकान्त कथन निर्हेतुक है। एकान्त कथन की सचाई को सिद्ध करने वाला कोई प्रमाण नहीं है। उदाहरण के लिए पूर्व सूत्र में वर्णित वादों की अति संक्षिप्त मीमांसा उपयोगी होगी। प्रथम "अस्थि लोए” को ही लीजिए। इसका अर्थ है लोक विद्यमान है । यदि यह कथन अवधारण रहित हो तो ठीक है लेकिन इसमें जब एकान्त का दुर्गण मिल जाता है और उसके साथ "ही" लग जाता है तो यह कथन मिथ्या हो जाता है। अवधारण रूप "ही" लग जाने पर “लोक है ही" यह रूप बन जाता है । अब विचारणीय यह है कि यदि लोक को सर्वथा अस्ति रूप ही स्वीकार किया जाय तो वह सर्वथा अस्ति ही रहेगा-तो अलोक की अपेक्षाभी लोक अस्तिरूप मानना पड़ेगा। लोक में जैसे लोकत्व का अस्तित्व है इसी तरह अलोक का भी अस्तित्व मानना होगा क्योंकि लोक सर्वथा अस्तिरूप स्वीकार किया जाय तो उसमें अलोक का नास्तित्व कैसे घट सकता है ? लोक में अलोक का नास्तित्व नहीं घटित होने पर लोक अलोक हो जायगा । यह वादी प्रतिवादी दोनों को इष्ट नहीं हैं । इसलिए लोक को एकान्त अस्तिरूप मानना युक्तिसंगत नहीं है । प्रत्येक वस्तु स्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा अस्तिरूप है और पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा नास्तिरूप है । जिस प्रकार घट घटत्व रूप से अस्तिरूप है परन्तु पट की अपेक्षा नास्तिरूप है। यदि ऐसा न माना जाय और घट को सर्वथा अस्ति रूप ही माना जाय तो वह पटरूप भी हो जायगा । उससे पटरूप अर्थ क्रिया भी होनी चाहिए लेकिन ऐसा नहीं होता। इसलिए प्रत्येक वस्तु में अस्ति और नास्ति उभय धर्म भिन्न २ अपेक्षा से मानने चाहिए। ऐसा माने बिना वस्तु-तत्त्व की संसिद्धि ही नहीं हो सकती है। उक्त रीति से ही “नस्थि लोए" के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिए । यदि लोक को केवल नास्ति रूप ही माना जाय तो लोक के स्वरूप का ही प्रभाव हो जाता है । वस्तु को यदि उसके स्वरूप की अपेक्षा से भी नास्ति रूप माना जाय तो वह वस्तु ही नहीं सिद्ध होती। उदाहरणार्थ-घट में पट की नास्ति है इसी तरह घट में यदि घट की भी नास्ति हो तो वह घट कैसे रह सकता है ? घट-साध्य अर्थक्रिया उससे कैसे हो सकती है ? इसी तरह लोक यदि सर्वथा नास्ति रूप ही है तो घट पटादि रूप लोक का भी अभाव हो जायगा । यह प्रत्यक्ष-बाधित है और अनिष्ट है । इसलिए एकान्त नास्ति रूप भी नहीं हो सकता है। लोक को स्वरूप की अपेक्षा अस्तिरूप और पररूप की अपेक्षा नास्ति रूप मानना ही युक्तिसंगत है। लोक को एकान्त नास्तिरूप कहने वाले वादी से पूछना चाहिए कि तुम लोक का नास्तित्व सिद्ध करने के लिए बोल रहे हो तो तुम स्वयं अस्ति रूप हो या नास्ति रूप ? यदि अस्ति रूप हो तो लोकान्तर्वी हो या लोकबहिर्वर्ती ? यदि लोक के अन्दर हो तो लोक का अभाव कैसे सिद्ध हो सकता है ? यदि लोक बाहर हो तो खर-विशाण-वत् तुम असिद्ध होते हो तो उत्तर किसको दिया जाय ? इस तरह एकान्त नास्तित्व भी सिद्ध नहीं होता इसीलिए कहा है For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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