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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir हुए अथवा जाते हुए कुछ देने लगे अथवा, देने का निमंत्रण करें या अन्य कोई वैयावृत्य करे तो सपा साधक उसे स्वीकार न करे और उनके संसर्ग से सदा बचता रहे। सम्यक्त्व रूप दर्शन की और चारित्र की शुद्धि के लिए यह आवश्यक है कि चारित्रहीन व्यक्तियों के साथ एवं उनके साथ सम्पर्क छोड़ दिया जाय । चारित्रहीन व्यक्तियों का संसर्ग सदाचारियों के लिए अति भयंकर होता है। जब तक साधक सत्य में पूर्ण स्थिरता न प्राप्त कर ले तब तक संसर्ग दोष उसे मार्ग से पतित कर दे ऐसी सम्भावना रहती है। इस सम्भावना से बचने के लिए सूत्रकार ने ऐसे शिथिलाचारियों व चारित्रहीन व्यक्तियों के साथ आदान-प्रदान करने का निषेध किया है । अशन, वस्त्र, पात्रादि का परस्पर में लेना और देना परिचय को बढ़ाता है और यह परिचय साधना के लिए भयंकर होता है इसलिए सदाचारी साधक को ऐसे संग से सदा दूर रहना चाहिए । यहाँ यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि साधक को निन्ध संग से बचाने के लिए ही यह सूत्र है । इस सूत्र का प्राशय कोई यह न समझे कि वह पतित अथवा शिथिलाचारियों की निन्दा करने लगे अथवा उनके साथ द्वेषभाव रखे । सच्चे साधक के हृदय में तो दोषी के लिए भी दया और प्रेम का भाव रहना चाहिए । उसे निन्दा और द्वेष के प्रपञ्च में पड़ कर अपनी आत्मा को मलिन न करनी चाहिए। उसे अपनी रक्षा के लिए उनके साथ का त्याग करना चाहिए-उनके साथ संसर्ग न रखना चाहिए लेकिन इसका अर्थ यह नहीं होता है कि उनके साथ असद्-व्यवहार किया जाय । इस बात को लक्ष्य में रखकर कुसङ्ग से बचते हुए संयम की निर्मल अाराधना करनी चाहिए । इहमेगेसिं पायारगोयरे नो सुनिसंते भवति ते इह श्रारंभट्ठी अणुवयमाणा हण पाणे, घायमाणा, हणो यावि समणुजाणमाणा अदुवा अदिनमाययंति अदुवा वायाउ विउज्जति तं जहा-अस्थि लोए, नस्थि लोए, धुवे लोए, अधुवे लोए, साइए लोए, अणाइए लोए, सपजवसिए लोए, अपजवसिए लोए सुकडेत्ति वा दुक्कडेत्ति वा कल्लाणेत्ति वा पावेत्ति वा साहुत्ति वा असाहु त्ति वा, सिद्धित्ति वा प्रसिद्धित्ति वा, निरएत्ति वा अनिरएत्ति वा । संस्कृतच्छाया-इहकैषामाचारगोचरो नो सुनिशान्तो भवति । ते इहारम्भार्थिनो ऽनुवदन्ते (यथा) जहि प्राणिनः घातयन्तो घ्नतश्चापि समनुजानन्तः अथवा अदत्तमाददति, अथवा वाचो वियुञ्जन्ति तद्यथा-अस्ति लोकः, नास्ति लोकः, ध्रुवो लोकः, अध्रुवो लोकः, आदिको लोकः, अनादिको लोकः, सपर्यवसितो लोकः, अपर्यवसितो लोकः, सुकृतमिति वा, दुष्कृतमिति वा, कल्याण इति वा, पाप इति वा साधुरिति वा Sसाधुरिति वा सिद्धिरिति वा असिद्धिरिति वा, नरक इति वा ऽनरक इति वा ।। शब्दार्थ-इह इस मनुष्य लोक में । एगेसिं-एक-एक को । आयारगोयरो आचारसम्बन्धी विषय । सुनिसते अच्छी तरह ज्ञात । नो भवति नहीं होता है । ते=वे । इह इस लोक For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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