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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अष्टम अध्ययन प्रथमोद्देशक ] [.४६७ में । प्रारंभट्ठी-आरम्भ करने वाले। अणुवयमाणा-प्रारम्भ में धर्म कहने वाले । हण पाणे= प्राणियों को मारो ऐसा कहकर। घायमाणा दूसरों से हिंसा कराते हैं। हणो यावि और हिंसा करते हुए का । समणुजाणमाणा अनुमोदन करते हैं | अदुवा अथवा । अदिनमाययंति= अदत्तादान करते हैं। अदुवा अथवा । वायाउ विउज्जंति विभिन्न तरह के वचन बोलते हैं। तं जहा=वह इस प्रकार । अत्थि लोए लोक है। नत्थि लोए लोक नहीं है । धुवे लोए लोक नित्य है । अधुवे लोए लोक अनित्य है। साइए लोए लोक सादि है । अणाइए लोए लोक अनादि है। सपजवसिए लोए लोक अन्तवाला है। अपञ्जवसिए लोए लोक अनन्त है । सुकडेत्ति वा=यह अच्छा किया । दुकडेत्ति वा=यह खराव किया। कल्लाणेति वा=यह कल्याण रूप है । पावेत्ति वा-यह पापरूप है । साहुत्ति वा यह अच्छा है । असाहुत्ति वा-यह खराब है। सिद्धित्ति वा-सिद्धि है । असिद्धित्ति वा-सिद्धि नहीं है । निरएत्ति वा-नरक है । अनिरएत्ति वा= नरक नहीं है। भावार्थ-हे जम्बू ! कई साधक ऐसे होते हैं जिन्हें यह भलीभांति प्रतीत नहीं होता कि आचरणीय क्या है ? ऐसे साधक प्रारम्भार्थी होकर अन्य अधर्मियों का अनुकरण करके "प्राणियों को मारो" ऐसा कहकर अन्य द्वारा हिंसा करवाते हैं और हिंसा करते हुए का अनुमोदन करते हैं, नहीं दिया हुआ ( अदत्त ) ग्रहण करते हैं और इस प्रकार के विभिन्न विभिन्न भ्रममूलक वचन बोलते हैं--कोई कहते हैं "लोक है" कोई कहते हैं "लोक नहीं है"। कोई कहते हैं "लोक नित्य है" कोई कहते हैं "लोक अनित्य है, कोई कहते हैं “लोक की आदि है" कोई कहते हैं “लोक अनादि है, कोई कहते हैं "लोक का अन्त ( प्रलय ) होता है" कोई कहते हैं "लोक का अन्त कभी नहीं होता" । कोई कहते हैं कि "यह अच्छा किया” उसीको दूसरे कहते हैं "यह खराब किया"। कोई कहते हैं “यह कल्याण रूप है" उसीको दूसरे पापरूप बतलाते हैं। जिसको कोई "साधु" कहते हैं उसे ही कोई "असाधु” बताते हैं। कोई कहते हैं "सिद्धि है" कोई कहते हैं कि सिद्धि नहीं है । कोई कहते हैं "नरक है' जब कि कतिपय कहते हैं कि नरक नहीं है । __विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार बताते हैं कि कुसंग का परित्याग क्यों करना चाहिए? अपरिपक्व साधक पर संगति का बड़ा भारी प्रभाव पड़ता है । अपरिपक्व–अनुभव हीन साधक को यह भी भलीभांति ज्ञात नहीं होता है कि उसका प्राचार क्या है ? आचरणीय क्या है ? क्या ग्राह्य है और क्या अग्राह्य है ? ऐसी अवस्था में साधक का संगति के प्रवाह में बह जाना साधारण सी बात है, अगर संगति अच्छी हुई तो उसका साध्य सिद्ध हो सकता है और यदि संगति खराब हुई तो उसका बुरा प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता है । ऐसा साधक श्रात्म-लक्ष्य को भूलकर अन्धानुकरण करने लग जाता है और वास्तविक मार्ग से पतित होता है । इस पतन की सम्भावना को दूर करने के आशय से अधर्मी के संसर्ग का त्याग करने का कहा गया है । अधर्मी, शिथिलाचारी तथा केवल नामधारो साधकों के For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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