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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अक्ष्म अध्ययन प्रथमोरेशक] संस्कृतच्छाया-ध्रुवं चैतमानीयात्, प्रसनं वा यावत्पादपुञ्छनं वा लब्ध्वा वाऽलवा वा, भुक्त्वा वाऽमुक्त्वा, पन्थानं व्यावर्य व्युत्क्रम्य विभक्तं धम्म जुषन् समागच्छन् गच्छन् प्रदद्यादा निमन्त्रयेद्वा कुर्याद्वयावृत्यं परमनाट्रियमाणः इति मवीमि । शब्दार्थ-धुवं चेयं यह निश्चित | जाणिजा-समझो कि । असणं अशन । वा= अथवा । जाव-यावत् । पायपुञ्छणं वा-रजोहरण । लभिया प्राप्त करके । नोलभिया न पाकर भी । भुञ्जिया भोगकर । नो भुञ्जिया-न भोगकर । पंथं-मार्ग को। विउत्ता छोड़कर । विउकम्म-गृहादि को लांघकर (अवश्य पधारे ऐसा)। विभत्तं भिन्न । धम्मं धर्म को । जोसेमाणेप्राचरने वाले । समेमाणे आते हुए । चलेमाणे-जाते हुए। पाइआ वा देने लगे। निमंतिज वा देने का निमंत्रण करे । वेयावडियं कुजा वैयावृत्य करे तो। परं अत्यन्त । अणादायमाणे अनादर करे उसे स्वीकार न करे । त्ति बेमि=ऐसा मैं कहता हूँ। भावार्थ- कदाचित् असंयमी अन्य भिन्तु सच्च साधकों को इस प्रकार कहें कि हे मुनियों ! यह निश्चित समझो कि तुम्हें आहारादि यावत् रजोहरणादि मिले अथवा न मिले, तुमने उसका भोग किया हो अथवा न भोग किया हो तो भी तुम हमारे यहां आना | रास्ता टेढ़ा हो अथवा मार्ग में घर आदि हों तो उन्हें लांघकर--- चक्कर लगाकर भी जरूर पधारना इस प्रकार विभिन्न धर्म के पालने वाले (विपरीत आचार वाले) शिथिल साधु आते हुए अथवा जाते हुए कुछ देने लगें, या देने का निमन्त्रण करें अथवा किसी प्रकार का वैयावृत्य करें तो सदाचारी साधकों का यह कर्तव्य है कि वे उसे स्वीकार न करें ऐसा मैं कहता हूँ । विवेचन-पूर्ववर्ती सूत्र में शिथिलाचारी स्वतीर्थीय अथवा अन्यतीर्थीय साधु वेशधारी को श्रादरपूर्वक परिचय वृद्धि के लिए अशनादिक देने का निषेध किया गया था। अब कुसंग परित्याग के श्राशय को विशेष पुष्ट करने के आशय से इस सूत्र में उनसे दी जाने वाली वस्तुश्चों को ग्रहण करने का निषेध करते हैं। शिथिलाचारियों को देना जैसे उनके साथ परिचय बढ़ाने का कारण होता है उसी तरह उनसे पादान करना भी उनके साथ परिचय बढ़ाने का कारण होता है । अतएव ऐसे शिथिलाचारियों से आदान-प्रदान करना मुनि साधक के लिए वर्जित है। प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार यह बता रहे हैं कि साधक स्वयं शिथिलाचारियों को अशनादिक न दे लेकिन कदाचित् वे शिथिलाचारी ही न माँगते हुए देने का प्रयत्न करते हुए इस प्रकार कहने लगे कि “हे मुनिओ ! आप यह निश्चित समझे कि हमारे यहाँ से खानपान आदि सभी वस्तुएँ आपको मिल सकती हैं अतएव आपको दूसरी जगह से मिले अथवा न मिले, आपने भोजन किया हो अथवा न किया हो, श्राप हमारे स्थान पर अवश्य पधारें। अन्यत्र श्रापको मिले तो विशेष लाभ के लिए और न मिले तो उन्हें पाने के लिए आप अवश्यमेव हमारे यहाँ श्रावें। हमारा स्थान मार्ग में ही है. और न हो तो भी क्या ? जरा चकर लगा करके भी आप पधारने का कष्ट करे।" इस रीति से प्रलोभन देकर वे चारित्रहीन साधु आते For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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