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[पापारा-सूत्रम् द्वारा अपनी जरूरी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं प्रतएव उनके लिए दान जैसी कोई चीज रहती ही नहीं है। जो संयमी व्यक्ति स्वयं के लिए आवश्यक वस्तुएँ भी अन्य से प्राप्त करता है, उसके लिए अन्य को देना योग्य नहीं हो सकता । दान देने के लिए आवश्यकता से अधिक ग्रहण करनाभिनु साधक का कर्तव्य नहीं है अतएव भिक्षु साधक के लिए दान धर्म अनावश्यक है। दाता से त्यागी अधिक श्रेष्ठ है और उच्चतर है। इस आशय को नहीं समझकर कतिपय जैन नामधारी दया दान के द्वेषी "साधु के लिए दान का निषेध है" इस बहाने गृहस्थ के लिए भी दान देने में एकान्त पाप की प्ररूपणा करते हैं और गृहस्थ के लिए भी दान का निषेध करते हैं परन्तु यह उनकी अज्ञानता है। यह ध्यान में रखना चाहिए कि गृहस्थ
और त्यागी का श्राचारकल्प निराला-निराला है। जो बात साधु के लिए अकल्पनीय है वह गृहस्थ के लिए कल्पनीय हो सकती है और जो गृहस्थ के लिए कल्पनीय है वह साधु के लिए अकल्पनीय हो सकती है। अतएव साधुकल्प में दान का निषेध होने के बहाने श्रावक के लिए भी दान का निषेध करना निरी अज्ञानता ही है क्योंकि साधु और गृहस्थ के प्राचारकल्प पृथक् २ हैं।
सूत्रकार ने समनोज्ञ और असमनोज्ञ पद दिये हैं। इसका वृत्तिकार ने इस प्रकार स्पष्टीकरण किया है-समनोज्ञो दृष्टितो लिङ्गतो न तु भोजनादिभिस्तद्विपरीतस्त्वसमनोज्ञः । अर्थात्-जो धर्म और लिङ्ग की अपेक्षा संभोगी हों वे समनोज्ञ और जो इसके विपरीत अन्य धर्म और अन्य लिङ्ग के हों वे असमनोज्ञ । नियुक्तिकार ने यह कहा है कि लिङ्ग समान होते हुए भी आचार समान न हो वे समनोज्ञ और जो स्वच्छंदाचारी हों, चारित्र, तप और विनय में समान न हों वे असमनोज्ञ हैं। समनोज्ञ और असमनोज्ञ साधुओं को वस्त्र, पात्रादि आदरपूर्वक देने का निषेध करने का प्रयोजन यह है कि इस प्रकार आदानप्रदान करने से संसर्ग और परिचय बढ़ता है और शिथिल आचार वालों के परिचय से संयम के पालन में क्षति अवश्य पहुँचती है अतएव ऐसे शिथिलाचारियों के संसर्ग से बचने के लिए यह निषेध किया गया है। दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि जो व्यक्ति संयम में शिथिल है वह उस वस्तु का दुरुपयोग भी कर सकता है और आवश्यकता न होने पर भी केवल संग्रहबुद्धि से उसे ले लेता है। यह अनिष्टकारक है अतएव यह निषेध किया गया है।
सूत्रकार ने "आदरपूर्वक" शब्द दिया है। इसका तात्पर्य यह है कि साधु, अन्य ऐसे साधुको कोई भी अपनी सामग्री परिचय बढ़ाने के लिए न दे। साधुसंस्था में भी साधुओं में परस्पर वात्सल्य तो आवश्यक है परन्तु यह वात्सल्य प्राचार व चारित्र में संभोगी साधुओं के साथ होना चाहिए। समान शील वाले साधुओं का यह कर्त्तव्य है कि वे परस्पर एक दूसरे को आवश्यक वस्तु प्रदान करें और दूसरी तरह भी वैयावृत्य करे । लेकिन यह केवल वात्सल्य के कारण होना चाहिए । वत्सलता से ही साधुसंस्था निभ सकती है और प्रेममय जीवन बिता सकती है।
यहाँ जो निषेध किया गया है वह कुसंग परित्याग को लक्ष्य में रखकर किया गया है। शिथिलापारियों के साथ संसर्ग और परिचय बढ़े ऐसा आदान-प्रदान न करना चाहिए। इस सूत्र का यह आशय है। यह आशय जैनधर्म की उदारता का बाधक नहीं वरन् पोषक है।
धुवं चेयं जाणिजा असणं वा जाव पायपुंछणं वा लभिया नो लभिया, भुञ्जिया नो भुञ्जिया, पंथं विउत्ता, विउकाम विभत्तं धम्म जोसेमाणे समेमाणे चलेमाणे पदिजा वा निमंतिज वा कुज्जावेयावडियं परं श्रणाढायमाणेतिबेमि।
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