SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 529
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [पाचाराङ्ग-सूत्रम् येष्विमे लूषिणो नो परिवित्रसन्ति ? स वान्त्वा क्रोधश्च मानञ्च मायाञ्च लोभञ्च एष तुट्टः व्याख्यातः इति ब्रवीमि ।। शब्दार्थ-एवं से इस प्रकार वह मुनि । उहिए सावधान होकर । ठियप्पा-मोक्षमार्ग में आत्मा को स्थित करने वाला । अणिहे राग-द्वेष रहित। अचले परीपहों से चञ्चल न होने वाला । चले एक स्थान पर न रहकर विचरण करने वाला। अबहिन्लेसे-संयम से बाह्य विचार न करने वाला । परिव्वए संयमानुष्ठान में विचरण करे। पेसलं धम्म पवित्र धर्म को । संखाय जानकर । दिट्ठिमंसद् अनुष्ठान वाला साधक । परिनिव्वुडे-मुक्त हो जाता है । तम्हाइसलिए । संगं ति पासह धन-धान्य आदि की आसक्ति के फल को विवेक बुद्धि से देखो। गंथेहिं गढिया विषण्णा नरा=आसक्ति में फंसे हुए व डूबे हुए मनुष्य । कामकता-काम-भोगों से पीड़ित होते हैं । तम्हा=इसलिए । लहाश्रो न परिवित्तसिजा-संयम से नहीं डरना चाहिए । जेसिमे लूसिणो नो परिवित्तसंति=हिंसकवृत्ति वाले जिन पाप कार्यों को करते हुए डरते नहीं है । इमे प्रारंभाचे प्रारंभ । जस्स सव्वनो सव्वप्पयाए जिसने सब प्रकार से सर्वथा । सुपरिन्नाया भवन्ति जानकर छोड़ दिए हैं। से कोहं जाव लोभं च वंता-वह क्रोध, मान, माया और लोभ को छोड़कर । एस तुट्टे वियाहिए त्ति बेमि-कर्म-बन्धन से मुक्त हो जाता है ऐसा मैं कहता हूँ। भावार्थ-संयम में सावधान रहने वाला साधक मोक्षमार्ग में प्रात्मा को स्थित करने वाला (स्थितप्रज्ञ), इच्छाओं का निरोध करने वाला, परीषहादि से विचलित न होने वाला और संयम से बाहर कभी नहीं जाने वाला ( सतत संयम के अभिमुख रहने वाला हो ) और एक स्थान में नहीं रहता हुआ ग्राम नुग्राम विचरण करता हुआ संयम का पालन करे । जो मुनि इस पवित्र धर्म को जानकर सदनुष्ठान का आचरण करते हैं वे मुक्त-से हो जाते हैं। आसक्ति के स्वरूप और विपाक का विवेक बुद्धि से अवलोकन करो । आसक्ति में फंसे और डूबे हुए मनुष्य कामनाओं से पीड़ित हो रहे हैं इसलिए आसक्त न बनो और संयम से भयभीत न होओ। अविवेकी और हिंसकवृत्ति वाले लोग जिन पापकर्मों को करते हुए नहीं डरते हैं उन सब आरम्भ आदि से ज्ञानीजन दूर रहते हैं और क्रोध, मान, माया और लोभ को छोड़ देते हैं । ऐसे साधक कर्म-बन्धन से मुक्त हो जाते हैं । ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-पर-कल्याण के लिए उपदेश-प्रदान आदि बाह्य प्रवृत्तियों करते हुए त्यागी मुनि कहीं बाह्य प्रवृत्तियों में ही न फंस जाय और कहीं उसमें उपदेशादि के बदले में किसी वस्तु को पाने की लालसा जागृत न हो जाय या वह लोक-संसर्ग में ही रागान्ध न हो जाय इसलिए यहाँ पुनः त्यागी साधु को सावधान करने के लिए उसके गुणों का वर्णन किया गया है। 'उट्रिए' विशेषण से यह बताया गया है कि वह मुनि परोपकार की प्रवृत्तियों को करते हुए भी अपनी मूल वस्तु चारित्र से प्रति सदा जागृत रहे । संयम के प्रति अंशमात्र भी उपेक्षा न करे। 'ठियप्पा' For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy