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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir षष्ठ अध्ययन पञ्चम उद्देशक ] उपदेशक मुनि को यह लक्ष्य में रखना चाहिए कि वह इस प्रकार का उपदेश कभी न दे जिससे दूसरे की आत्मा को आघात या ठेस पहुँचती हो । दूसरे की आशातना करने वाली भाषा का कभी उपयोग नहीं करना चाहिए। साथ ही किसी भी प्राणी, भूत, जीव और सत्व को हानि न पहुँचे, उसकी आत्मा को पीड़ा न हो और किसी का भी अहित न होता हो ऐसा ही उपदेश देना चाहिए। त्यागी साधक को ऐसी संयत भाषा में उपदेश देना चाहिए जिससे किसी प्राणी का आरम्भसमारम्भ भी न हो और किसी को अन्तराय भी न लगे । कूप-जलाशय-निर्माण आदि मिश्रपक्ष का न तो सर्वथा विधान ही करना चाहिए और न सर्वथा निषेध ही करना चाहिए । विधि-निषेध से बचते हुए संयतभाषा में यथार्थतत्त्व निरूपण करना चाहिए। उपदेश देने में विवेक रखना चाहिए, इसका आशय यह नहीं समझ लेना चाहिए कि मुनि साधक पूर्ण त्याग का ही उपदेश दे सकता है। पूर्वसूत्र में यह कहा जा चुका है कि श्रोता की योग्यता के अनुसार उपदेश दिया जाना चाहिए । सम्पूर्ण त्याग का उपदेश देना अच्छा है परन्तु जिसमें यह उपदेश पचाने की शक्ति नहीं है उसे तो क्रमिक विकास का मार्ग ही बतलाना हितकर है। जो साधक इस प्रकार किसी का अहित न करता हुआ विवेकपूर्वक उपदेश-प्रदान करता है वह असन्दीन द्वीप की तरह दुखी और संतप्त जीवों के लिए शरणभूत होता है । जिस तरह द्वीप, समुद्र में भटकने वाले नाविकों और यात्रियों के लिए आश्वासन रूप होता है इस तरह ज्ञानी और अनुभवी महामुनि साधना के मार्ग में दूसरों को स्थिर करते हैं और उन्हें आराम देते हैं। ऐसे मुनि अहिंसा के उपदेश के द्वारा वध्यमान प्राणियों को शान्ति देते हैं और मारने वालों के विचारों में परिवर्तन कर उन्हें भी पाप से बचाते हैं इस तरह वे दोनों के लिए शरणभूत होते हैं। जैसे असन्दीन द्वीप अपने चारों ओर समुद्र से घिरे होने पर भी कभी जल से व्याप्त नहीं होता इसी तरह सञ्चा मुनि संसार के सम्पर्क में रहता हुआ भी उससे अलिप्त बना रहता है और द्वीप की तरह दूसरे प्राणियों के लिए शरणरूप-आधाररूप बनता है। वह स्वयं उच्च और उच्चतर स्थिति पर पहुँचता जाता है और दूसरों को भी क्रमशः ऊँचा चढ़ाने का प्रयास करता जाता है। इस तरह सच्चा साधक आत्मलक्षी प्रवृत्ति करता हुआ मर्यादापूर्वक उपदेश-दान के द्वारा पर-कल्याण का भी साधन करता जाता है। एवं से उठ्ठिए ठियप्पा अणिहे अचले चले अबहिल्लेसे परिव्वए। संखाय पेसलं धम्म दिट्ठिमं परिनिव्वुडे । तम्हा संगं ति पासह गंथेहिं गढिश्रा नरा विसन्ना कामक्कंता तम्हा लूहानो नो परिवित्तसिजा; जस्सिमे प्रारंभा सम्बो सव्वप्पयाए सुपरिन्नाया भवन्ति जेसिमे लूसिणो नो परिवित्तसंति, से वंता कोहं च माणं च मायं च लोभं च एस तुझे वियाहिए त्ति बेमि । संस्कृतच्छाया-एवं स उत्थितः स्थितात्मा, अस्तिहः, अचलः,चलः, अबहिर्लेश्यः परिव्रजेत्। संख्याय पेशलं धर्म दृष्टिमान् परिनिर्वृतः । तस्मात् संगं पश्यत-ग्रन्थैर्ग्रथिताः नराः विषण्णाः कामाफ्रान्ताः तस्मात् रूक्षात् नो परिवित्र सेत् । यस्येमे आरम्भाः सर्वतः सर्वात्मना सुपरिक्षाताः भवन्ति For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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