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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir षष्ठ अध्ययन पञ्चम उद्देशक ] [ म विशेषण से मुनि की स्थितप्रज्ञता का सूचन किया गया है। स्थितप्रज्ञ मुनि लाभ या अलाभ में, मान में या अपमान में, क्रिया के शुभ फल में या अशुभ फल में, हर्ष में या शोक में, समभाव रखने वाला होता है। वह किसी कामना या लालसा से प्रेरित होकर उपदेशादि प्रवृत्तियाँ नहीं करता । अर्थात् वह फल की कामना से कोई क्रिया नहीं करता । यद्यपि कर्म-सिद्धान्त का यह नियम है कि क्रिया का फल कर्ता को अवश्य प्राप्त होता है तदपि जो निष्काम होकर क्रिया करता है वह उस क्रिया के होने वाले शुभ या अशुभ फल को पचा सकता है। अशुभ फल से उसे शोक या शुभ फल से उसे हर्ष नहीं होता । वह तो कर्त्तव्यभावना से क्रिया करता जाता है, फल से उसे कोई मतलब नहीं रहता। यही स्थितप्रज्ञता या निरासक्ति है। - 'अणिहे' विशेषण से मुनि को राग-भाव न करने का संकेत किया गया है। परोपकार के लिए प्रवृत्ति करते हुए मुनि किसी के साथ राग-बन्धन में न बँध जाय इसका विशेषरूप से ध्यान रखना चाहिए। राग-भावना संयम की प्रबल बाधिका है। किसी के प्रति राग पैदा हो जाने से अनर्थों की परम्परा बढ़ जाती है। इसलिए मुनि को सर्वथा निर्लिप्त होकर ही परोपकार की प्रवृत्तियाँ करनी चाहिए । इस ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। 'अचले' विशेषण से मुनि की दृढ़ता का सूचन किया गया है। लोक-संसर्ग में आने पर अनेक अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों का अनुभव करना पड़ता है। उनमें मुनि अपनी चित्तवृत्तियों को चञ्चल न बनाता हुआ संयम में दृढ बना रहे। 'चले' विशेषण से यह सूचित किया है कि मुनि एक ही स्थान पर स्थित न हो जाय और प्रामानुग्राम विचरता रहे । एक ही स्थान पर रहने से मोह, आसक्ति श्रादि विकारों की अधिक सम्भावना रहती है । इनसे बचने के लिए तथा सत्यधर्म का प्रचार करने के लिए मुनि को बहते हुए जल की तरह स्वच्छ होकर विचरते रहना चाहिए । 'अबहिल्लेसे विशेषण देकर सूत्रकार ने यह बताया है कि मुनि कभी ऐसा विचार या संकल्प तक न करे जो संयम से बाहर ले जाने वाला हो । वह सदा संयमाभिमुख ही बना रहे । इन गुणों से युक्त मुनि प्रवृत्ति और निवृत्ति के स्वरूप को यथार्थ रूप से जानकर सदनुष्टान रूप प्रवृत्ति में प्रवृत्त रहता है । इससे आत्म-कल्याण और जनकल्याण की साधना में सामञ्जस्य बनारहता है। जो साधक धर्म के स्वरूप को जानकर सदनुष्ठान रूप प्रवृत्ति करते रहते हैं वे मुक्त हो जाते हैं। सदनुष्ठान में प्रवृत्ति वस्तुतः निवृत्ति ही है। निवृत्ति का अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि सब क्रियाओं को छोड़कर बालसी या अकर्मण्य बना जाय । अशुभ-क्रियाओं से निवृत्ति और सक्रियाओं में प्रवृत्ति यही चारित्र है । जो व्यक्ति निवृत्ति की ओट में सत्प्रवृत्ति से दूर रहने की कोशिश करते हैं वे आलस्य और जड़ता को वेग देते हैं । संयममार्ग की साधना में सत्प्रवृत्ति बाधक नहीं परन्तु साधक है । अतः संयमी को सदा सत् प्रवृत्ति में प्रवृत्त रहना चाहिए। ऐसा करने से वह पापकों से बचकर मुक्त हो जाता है। सत्प्रवृत्ति के बहाने कई साधक प्रपञ्चों में फंस जाते हैं। इस प्रकार के प्रपञ्चों में न फसने के लिए सूत्रकार ने पुनः पुनः कहा है कि आसक्ति और उसके परिणामों को विवेक-बुद्धि से देखो और उनसे बचते रहो। अनेक व्यक्ति लौकिक-कामनाओं से प्रेरित होकर साधु के संसर्ग में आते हैं और अपनी भक्ति पता कर स्वार्थ की पूर्ति करना चाहते हैं । मुनि का यह कर्तव्य है कि वह किसी प्रकार भी उनके साथ राग-बन्धन में न फंसे । इस विश्व में धन-दौलत या अन्य विषयों में आसक्त बने हुए जीव कामनाओं से For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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