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[पाचारा-सूत्रम्
संस्कृतच्छाया-किमनेन भो ! जनेन करिष्यामि, इति मन्यमाना एवमेके उदित्वा मातरं पितरं हित्वा ज्ञातीन् च परिग्रहं वीरायमाणः समुत्थाय अविहिंसा सुव्रताः दान्ताः पश्य दीनान् उत्पत्तितान् प्रतिपततः यशार्ताः कातरा जनाः लषका भवन्ति । प्रथमेकेषां श्लोको पापको भवति, विभ्रान्तो विभ्रान्तः पश्य यूयं एके समन्वागतैः सह भसमन्वगतान् नममानैः अनवमानान्, विरतैरविरतान् द्रव्यरद्रव्यान् अभिसमेत्य पंडितो मेधावी निष्ठितार्थी वीरः भागमेन सदा पराक्रामयोरति ।
शब्दार्थ-एगे-कितनेक व्यक्ति । भो हे पुरुष !। किमणेण जणेण-माता-पितादि जनों से क्या । करिष्यामि करूंगा । एवं इस प्रकार । वइचा-कहकर । मायरं माता को । पियरं-पिता को । नायो जातिजनों को। य परिग्गह और धन-धान्यादि परिग्रह को । हिचा= छोड़कर । वीरायमाणा वीर के सदृश । समुट्ठाए प्रबजित होते हैं। अविहिंसा=अहिंसक । सुव्वया श्रेष्ठ व्रतधारी । दंता-जितेन्द्रिय होकर । उप्पइए संयम पर चढ़े हुए भी पुनः । पडिवयमाणे-गिरते हैं । दीणे और दीन बनते हैं सो । पश्य-तू देख । वसट्टा इन्द्रियों के वश होने से दुखी । कायरा-सत्वहीन । जणा-मनुष्य । लूसगाव्रतों के विध्वंसक । भवन्ति होते हैं। अथ अनन्तर । एगेसि किन्हीं की। सिलोए पावए भवइ-अपकीर्ति होती है कि। से समणो भवित्ता-वह साधु होकर । विभंते विन्भन्ते भ्रष्ट होने वाला जा रहा है। पासह देखो देखो। एगे कोई साधक । समन्नागएहिं सह-उग्र-विहारियों के साथ रहता हुआ भी। असमन्नागएप्रमादी होता है। नममाणेहि विनयवानों के साथ रहकर । अनममाणे अविनीत होता हैं। विरएहिं-विरत पुरुषों के साथ रहकर भी। अविरए अविरत होता है । दविएहि पवित्र पुरुषों के साथ रहकर भी । अदविए अपवित्र होता है। अभिसमिच्चा-यह जानकर । पंडिएपण्डित। मेहावी-बुद्धिमान् । निट्ठियटे-विषय-वाञ्छा का त्यागी। वीरे-वीर साधक । आगमेन सर्वज्ञ प्रणीत उपदेश के अनुसार । सया-सदा । परिकमिजासि-पराक्रम करे।त्ति बेमि=ऐसा मैं कहता हूँ।
___ भावार्थ- कतिपय साधक त्यागमार्ग में प्रवजित होते समय प्राप्त भोगसम्बन्धों को "इनसे मुझे क्या सुख मिलने वाला है ? यह मानकर माता, पिता, ज्ञातिजन, धनदौलत इत्यादि को त्याग कर पराक्रम से दीक्षा धारण करते हैं और अहिंसा और व्रतों को पालन करते हैं तथा जितेन्द्रिय भी बनते हैं परन्तु पश्चात् ( आवेग कम होने पर ) संयम पर चढकर भी कायरता से संयम से पतित हो जाते हैं। हे शिष्य ! जो विषय और कषायों के वश होकर दुष्ट संकल्प किया करते हैं और जो सत्वहीन हैं वे संयम की विराधना करें और ब्रों का भंग करे तो क्या आश्चर्य की बात है ? संयम से भ्रष्ट होने वालों की दुनिया में अपकीर्ति होती है । लोग कहते हैं कि-अरे देखो यह साधु बनकर फिरसे गृहस्थ बन गया है। हे शिष्य ! कतिपय साधक ऐसे भी हैं जो उग्र विहारी साधकों के संसर्ग में रहकर भी आलसी होते हैं, विनीत साधकों के सम्पर्क में रहकर भी अविनीत रहते हैं, विरत आत्माओं साथ रहकर भी पापप्रवृत्ति में
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