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पा अध्ययन पतुर्थोरेशक
पडे रहते हैं और पवित्र पुरुषों के संसर्ग में रहकर भी अपवित्र बने रहते हैं । इसलिए प्रात्मार्थी जम्बू यह सब रहस्य जानकर मर्यादाशील, पंडित, मोक्षार्थी और वीर साधक सदा जिनभाषित आगम के अनु सार पराक्रम करें ऐसा मैं कहता हूँ।
विवेचन-इस सूत्र के प्रारम्भ में सूत्रकार ऐसे साधकों की चर्चा करते हैं जो सची समझपूर्वक नहीं लेकिन आवेश-वश पदार्थों का तिरस्कार कर त्यागमार्ग स्वीकार कर लेते हैं। वास्तविक त्याग तो वह है जो समझपूर्वक-सत्यासत्य के विवेक के बाद किया जाता है। किसी के सुन्दर शब्दों से प्रभावित होकर अथवा तिरस्कार-पूर्वक यह कहकर कि "इन पदार्थों में सुख नहीं है" जो त्याग किया जाता है वह अस्थिर होता है। विवेक-बुद्धि के बाद जो सहज वैराग्य उत्पन्न होता है वही स्थायी होता है। तिरस्कारपूर्वक पदार्थों को त्यागने वाला कालान्तर में पतित होता है यह सूत्रकार इस सूत्र में बताते हैं।
कतिपय साधक प्रव्रज्या लेते समय वैराग्य से रंगे रहते हैं। वे यह समझते हैं कि माता, पिता, स्त्री, पुत्र, पन-दौलत आदि से मुझे सुख मिलने वाला नहीं है। ये मुझे शरण देने वाले नहीं है । रोगादि के समय अथवा कर्मपरिणति के फल को भोगने के समय ये मुझे सहायता नहीं कर सकते हैं। यह जानकर वे माता-पिता आदि का एकदम त्याग कर देते हैं और वीर के समान त्यागमार्ग स्वीकार कर लेते हैं। यहाँ यह समझ लेना चाहिए कि एकदम आवेश से स्वीकारा हुआ यह त्यागमार्ग तत्त्वातत्त्व के विवेक के बाद नहीं उत्पन्न हुश्रा है लेकिन यह भावना के आवेश से स्वीकारा हुआ है अतएव भावनाओं की दिशा बदलते ही त्याग की भी दिशा बदल जाती है। ऐसे साधक वीर के समान दीक्षा लेते हैं-ब्रतों का पालन करते हैं, अहिंसा को धारण करते हैं और इन्द्रियों को जीतने की कोशिश भी करते हैं परन्तु कालप्रवाह के साथ उनकी भावनाओं का वेग कम हो जाता है और वैराग्य का रङ्ग उड़ जाता है। इसका कारण यह है कि वह रङ्ग ऊपर ही चढ़ा था । वह तन्मयता-एकरूपता नहीं पा सका था अतएव कारणों के मिलने पर वह रङ्ग चला जाता है । वैराग्य-रङ्ग के जाते ही वह साधक जो पहिले सिंह के समान थेगीदड़ के समान कायर बन जाते हैं । वे इन्द्रियों और कषायों के वश में पड़ जाते हैं और दीन हो जाते हैं। दीन बनकर वे संयमरूपी पर्वत की चोटी से धरातल पर गिर पड़ते हैं।
इन्द्रियों एवं कषायों के अधीन बने हुए साधकों को दुष्ट संकल्प नहीं छोड़ते हैं। ऐसे साधक सदा अनिष्ट अध्यवसायों के शिकार बने रहते हैं। वे उन दुष्ट संकल्पों को रोकने की शक्ति गँवा बैठते हैं। इसलिए वे सत्वहीन-कायर बन जाते हैं और विषयों के दास बनकर व्रतों का भंग कर देते हैं एवं संयम से पतित हो जाते हैं। यहाँ यह शंका हो सकती है कि विषय और कषायों का सम्बन्ध वृत्ति के साथ है और वृत्तियों का क्षय सम्पूर्ण वीतरागता प्राप्त हो तभी होता है तो वहाँ तक संयम और त्याग क्या संभव नहीं हैं ? इसका समाधान यह है कि यद्यपि वृत्तियों का सम्पूर्ण क्षय तो वीतरागता प्राप्त होने पर ही होता है तदपि जब तक यह दशा प्राप्त न हो तब तक भले ही वृत्तियाँ बनी रहे परन्तु उन वृत्तियों पर आने वाले दुष्ट विकल्पों को रोकने का बल तो जरूर उत्पन्न करना चाहिए । साधक यदि दुष्ट विकल्पों के प्रति असावधान रहे तो वे ऐसा असर उत्पन्न करते हैं जिससे साधक विषयों की ओर खिंचता चला जाता है और अन्त में पतित हो जाता है। इससे यह सार निकलता है कि शारीरिक पतन के पहले कई बार मानसिक पतन हो जाता है। मानसिक और वाचिक पतन के बाद ही कायिक पतन होता है। इसलिए मन के विकल्पों पर पूरी चौकसी रखनी चाहिए। मन में उत्पन्न होने वाले विकल्पों का प्रतिकार न करने से ही
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