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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir षष्ठ अभ्ययन चतुर्थोद्देशक ] [४८७ मार्ग में सम्मिलित हो जाते हैं । उनका पदार्थों के प्रति मोह, सुखलम्पटता के प्रति रुचि और संसार का आकर्षण बने रहते हैं उनमें वैराग्य की भावना बलवती नहीं हुई होती है। यही कारण है कि थोड़े काल के व्यतीत होने पर उनका श्रावेश ठंडा हो जाता है और उनका मन तथा उनकी इन्द्रियाँ विषयों और पदार्थों की ओर दौड़ने लगती हैं इसलिए वे साधना में अति कष्टों का अनुभव करने लगते हैं और असंयमित जीवन में आनन्द मानने लगते हैं। इस प्रकार के साधकों को संयम में स्थिर करने के लिए सत्पुरुष गुरुदेव उन्हें उपदेशामृत का पान कराते हैं । सत्पुरुषों की दृष्टि कितनी अमीमय होती है ! इनके हृदय में कितनी अनुकम्पा होती है ! इनके वचनों में कैसी मधुरिमा होती है ! पर-कल्याण की भावना से प्रेरित होकर वे चञ्चल चित्त वाले साधकों को उपदेश करते हैं कि-हे साधको! तुम सखलम्पट बनकर अथवा अभिमान प्रसित होकर प्राणियों की हिंसा में प्रवृत्त होते हो, हिंसामय उपदेश देते हो, श्राधाकर्मी आहारादि लेकर पचनपाचनादि क्रिया में प्रवृत्त हिंसा करने वालों को अनुमोदन देते हो यह तुम्हारी बालता है । तुम दूसरों को यह उपदेश देते हो कि शरीर से ही धर्म किया जा सकता है। शरीर धर्म का साधन है इसलिए बड़े यत्न से इसका पालन करना चाहिए। ऐसा कहकर तम शरीर सख के अभिलाषी बन जाते हो और श्रात्म-सुख को विसरा देते हो। वस्तुतः यह तुम्हारी अज्ञानता है शरीर का पालन वहीं तक करना चाहिए जब तक वह संयम में बाधाकारी न हो। तुम तो शरीर सुख के लोलुपी बनकर आत्मा का भान भूल जाते हो और हिंसा का समर्थन करते हो। ऐसा करके तुम अपनी अधर्म भावना को प्रकट करते हो । तुमने धर्म और अधर्म का विवेक ही नहीं समझा है। तीर्थकर देवों ने जिस धर्म की प्ररूपणा की है वह कायरों द्वारा दुरनुचर है। इस मार्ग पर वीर पुरुष ही प्रयाण कर सकते हैं। तुम इस वीरों के धर्म को बराबर नहीं समझते हुए कायर बन रहे हो और उस सद्धर्म की उपेक्षा कर रहे हो। वीतराग की आज्ञा का भंग करके तुम स्वेच्छाचार में प्रवृत्त हो रहे हो। तुम्हारी यह प्रवृत्ति सूचित करती है कि तुम कामभोगों में आसक्ति रखते हो, तुम्हारी इन्द्रियों को विषयों की ओर जाते हुए रोकने में तुम असमर्थ हो और तुम्हें अभी सांसारिक सुखों की कामना है जिसके कारण तुम इस प्रकार सावध अनुष्ठान में प्रवृत्ति करते हो। यह याद रखना चाहिए कि तुम्हारी ऐसी प्रवृतियों का परिणाम अति अनिष्ट रूप में आवेगा। इसलिए यह सब विचार करके वीतराग प्ररूपित धर्म के आशय को बराबर समझ कर तदनुसार प्रवृत्ति करना चाहिए। इसी में कल्याण, मंगल और सचा सुख रहा हुआ है । जिस सुख को तुम सुख समझ रहे हो वह वास्तव में दुख रूप है । हे साधको तुम बुद्धिमान हो इसलिए विचारपूर्वक श्रुत और चारित्रमय धर्म को समझो और तदनुकूल प्रवृत्ति करो। किमणेण भो ! जणेण करिस्सामित्ति मन्नमाणे एवं एगे वइत्ता मायर पियरं हिचा नायनो य परिग्गहं वीरायमाणा समुट्ठाए अविहिंसा सुव्वया दंता पस्स दीणे उप्पइए पडिवयमाणे वसट्टा कायरा जणा लूसगा भवंति, अहमेगेसि सिलोए पावए भवइ, से समणो भवित्ता विभंते विभंते पासहेगे समन्नागएहिं सह असमन्नागए नममाणेहिं अनममाणे विरएहिं अविरए दविएहिं अदविए अभिसमिच्चा पंडिए मेहावी निट्ठियढे वीरे श्रागमेणं सया परिकमिजासि त्ति बेमि। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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