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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४८६ ] [आचाराग-सूत्रम् उनके बीच में भेद की दीवाल खड़ी की गई है। धार्मिक कट्टरता के कारण मानव-संस्कृति का विनाश हुआ है। यह कट्टरता अनिष्टरूप है । इसलिए सूत्रकार ने कहा है कि धर्म के रहस्य को यथार्थ जानो। धर्म के रहस्य को जानने वाला साधक साधना की सम-विषम श्रेणियों को पार करता हुआ मोक्षमार्ग की ओर बढ़ता जाता है। अहम्मट्टी तुमंसि नाम बाले प्रारंभट्ठी अणुवयमाणे हण पाणे, घायमाणे हणो यावि समणुजाणमाणे घोरे धम्मे, उदीरिए उवेहइ णं अणाणाए एस विसन्ने वियद्दे वियाहिए ति बेमि । संस्कृतच्छाया-अधर्माथीं त्वमसि नाम बाल भारम्भार्थी अनुवदन् जहि प्राणिनः घातयन् नतश्चापि समनुजानानः, घोरो धर्म उदीरितः, उपेक्षते अनाज्ञया, एषः विषरणो वितो व्याख्यातः इति अवामि । : शब्दार्थ-आरंभट्ठी सावद्य प्रारम्भ में प्रवृत्त होकर। हण पाणे प्राणियों की हिंसा करो ऐसा । अणुवयमाणे हिंसावाद का समर्थन करते हुए । घायमाणे हिंसा कराते हुए। हणो यावि समणुजाणमाणे हिंसा करते हुए की अनुमोदना करते हुए । तुमंसि नाम-तुम । वाले अज्ञानी हो। अहम्मट्ठी और अधर्म के अभिलाषी हो । घोरे धम्मे=दुरनुचर-कठिन धर्म । उदीरिए=जिनेश्वर देवों ने कहा है ऐसा समझ कर। उवेहइ उसकी उपेक्षा करते हैं। भणाणाए और तीर्थङ्कर की आज्ञा के बाहर होकर स्वेच्छा से प्रवृत्ति करते हैं। एस=ऐसे साधक । विसन्ने कामभोग में मूर्छित । वियद्दे हिंसा में तत्पर । वियाहिए कहे गए हैं । त्ति बेमि=ऐसा मैं कहता हूँ। भावार्थ-संयम में अस्थिर मन वाले साधकों को सत्पुरुष इस प्रकार उपदेश देते हैं कि हे पुरुष ! तू सचमुच मूर्ख है। तू अधर्म को धर्म मान रहा है । हिंसावृत्ति से तू छोटे बडे जीवो की हिंसा कर रहा है, "अमुक को मारो" इस प्रकार हिंसा का उपदेश कर रहा है, हिंसक की अनुमोदना कर रहा है । तु अज्ञान है, तू अधर्म का अर्थी है । हे साधक ! ज्ञानी पुरुषों ने कायरों द्वारा दुरनुचर धर्म की प्ररूपणा की है परन्तु तु उनकी आज्ञा का भंग करके उत्तम कोटि के धर्म की उपेक्षा कर रहा है इसलिए तु मोह से मूर्छित और हिंसा में तत्पर हुआ दिखाई देता है ऐसा मैं कहता हूँ । . विवेचन-ऊपर के सूत्रों में साधना की सम और विषम श्रेणियों का प्रतिपादन किया गया है। संयम के मार्ग में साधक क्यों आगे नहीं बढ़ सकता है ? साधक को क्या २ जटिलताएँ और बाधाएँ उपस्थित होती हैं ? साधक क्यों त्याग को नीरस मानने लगता है ? परीषहों में व्याकुल क्यों हो जाता है ? इत्यादि प्रश्नों का उत्तर आगे के सूत्रों में दिया जा चुका है। उसका सार यह है कि साधक त्याग के वास्तविक स्वरूप को समझे बिना, बिना किसी विशेष लक्ष्य के, आवेशवश अथवा संयोगों के वश त्याग For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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