________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
षष्ठ अध्ययन चतुर्थोद्देशक ]
इस कोटि के साधक यद्यपि व्यवहार दृष्टि से प्राचार्य एवं गुरुजनों को नमस्कार करते हैं और वाह्य आचार का पालन करते हैं तदपि वे भाव विनय से रहित होने से तथा वस्तुतः संयम में रक्त न होने से संयम से हीन ही है । संयम से हीन होते हुए भी हम ही सर्वोत्कृष्ट चारित्र के पालन करने वाले हैं ऐसी प्रगल्भता करके वे सत्य का खून करते हैं। ऐसे साधक असाध्य रोगी के समान होते हैं। ये ज्ञान, दर्शन और चारित्र तीनों से भ्रष्ट होते हैं ।
कतिपय साधक इस कोटि के होते हैं जो साधना के मार्ग में आने वाले अनेक अनुकूल प्रतिकूल उपसर्ग एवं परीषहों के उपस्थित होने पर व्याकुल होकर साधना से पतित हो जाते हैं। ऐसे साधक साता के गवेषी होते हैं। शरीर के प्रति उनका मोह नष्ट नहीं होता है और पदार्थों के प्रति आकर्षण भी कम नहीं होता है। इसलिए कष्टों के आने पर वे अत्यन्त व्याकुल हो जाते हैं और यह विचारते हैं कि संयम के मार्ग में तो अनेक कष्ट पाते हैं इससे अच्छा तो यही है कि गृहस्थाश्रम में रहकर सुखमय जीवन व्यतीत करें । ऐसे साधकों को अभी सच्चे सुख की प्रतीति नहीं हुई होती है इसलिए वे संयमी जीवन से घबराकर असंयमी जीवन स्वीकार कर लेते हैं । कतिपय साधक लोकलज्जा से डरकर संयमी वेश का त्याग तो नहीं करते हैं लेकिन संयम के प्रति उनका रस कम हो जाता है और किसी भी तरह वे संयम के वेश में असंयम-सा जीवन व्यतीत करते हैं । जिस प्रकार गलित अश्व बिना रूचि के गाड़े को किसी प्रकार खींचते हैं इसी प्रकार ऐसे साधक विना रूचि एवं रसके किसी प्रकार से संयम का बाह्यरीति से पालन करते हैं। त्याग में तन्मयता न होने के कारण उनका जीवन नीरस और शुष्क बन जाता है। ऐसे साधक व्यक्तिगत या समाजगत किसी प्रकार का हितसाधन नहीं कर सकते । जिन्हें त्याग में रस नहीं मालूम होता उनका गृहवास त्यागना और न त्यागना एक समान है। उनका प्रव्रज्या लेना भी अयोग्य है। प्रव्रज्या स्वीकार करके ज्ञान, दर्शन, चारित्र, मूलगुण, उत्तरगुण आदि में दोष लगाना प्रव्रज्या को कलंकित करना है। ऐसे साधक साधारण पुरुषों से भी धिक्कार पाते हैं तथा जन्म-मरण की परम्परा की वृद्धि करते हैं।
कई साधक "हम ही ज्ञानी हैं। इस प्रकार के अभिमान में प्राकर दूसरों को नीचे मानकर पतन के मार्ग में जाते रहते हैं। वे थोड़े से अक्षरों के ज्ञान से अपने आपको महाज्ञानी समझकर प्राचार्यादि की अवहेलना करने लगते हैं और बोलते हैं कि हम बहुश्रुती हैं, श्राचार्य क्या जानते हैं ? इस प्रकार मानोन्नत होकर रस एवं साता गौरव के वशवर्ती होते हुए आत्म-श्लाघा करते हुए नहीं थकते हैं। मैं ही ज्ञानी हूँ, मैं ही चारित्रवान हूँ, मैं ही ऊँचा हूँ, मैं ही ज्ञाति कुल सम्पन्न हूँ इस प्रकार का या अन्य किसी प्रकार का मिथ्याभिमान साधकों में रह जाय तो यह स्थिति अति अधम है । ऐसे साधकों को जब उनके सहयोगी शुद्ध प्राचार वाले साधक कुछ शिक्षारूप में कहते हैं तो वे उन्हें धुत्कारते है और तिरस्कार करते हुए बोलते हैं कि “तुम अपने आपको सुधारो फिर दूसरों को उपदेश देना"। अन्य भी रीति से-सहोगी के पूर्व के कार्यों को कहकर-जैसे तू तो तृणहारा है श्रादि अतथ्य आरोपों द्वारा उनकी भर्त्सना करने लग जाते हैं। ऐसे साधक सबसे अधम हैं। वे बहुत काल तक जन्म-मरण करेंगे और
और हट्टघटीयन्त्र के समान संसार में भटकते रहेंगे। उपसंहार करते हुए सूत्रकार फरमाते हैं कि बुद्धिमान साधक धर्म के रहस्य को यथार्थ रीति से जाने । ऐसा जानकर सूत्रकार यह सूचित करते हैं कि अनेकान्तदृष्टि से सभी धर्मों, मतों और सम्प्रदायों को देखना चाहिए । सहा जिन प्ररूपित जैनधर्म किसी का तिरस्कार नहीं करता । उस जैनधर्म के अनेकान्तरूपी महासागर में सभी धर्म-नदियों मिल जाती हैं। दुनिया में धर्म के नामपर धार्मिक जनून कट्टरता का प्रचार हो रहा है यही कारण है कि इस कृत्रिम धर्म के नाम पर खून की नदियाँ बहायी गई है और मनुष्य मनुष्य में सहज होने वाले प्रेम में जहर डालकर
For Private And Personal