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[ आचारान-सूत्रम्
क रही है उसे बाहर से ढाँक देने से क्या शान्ति मिल सकती है ? ऐसे साधक त्यागमार्ग स्वीकार तो कर लेते हैं परन्तु वे मोक्षमार्ग में नहीं चल सकते। उन्हें आत्मकल्याण की इच्छा नहीं है लेकिन लोकैषणा की तमन्ना रहती है अतएव वे ख्याति प्राप्त करने के लिए ही प्रयत्न करते हैं। इसी कीर्ति की कामना से वे न्याय, व्याकरण, साहित्य और शास्त्रों का ज्ञान करते हैं । ज्ञान सीखने का उद्देश्य आत्मिक जागृति करना है लेकिन उनका उद्देश्य ज्ञान प्राप्त कर अपनी विद्वत्ता का प्रभाव दूसरों पर डालने का होता है । वे अपनी विद्वत्ता से दूसरों को प्रभावित करने के लिए सुन्दर एवं आकर्षक शैली से व्याख्यान करते हैं । जनता का मनोरंजन करना ही उनके उपदेश एवं भाषणों का उद्देश्य होता है। ऐसा करके वे भले ही बाह्य प्रतिष्ठा प्राप्त कर लें लेकिन वस्तुतः यह भयंकर पतन है । लोकैषरणा से प्रेरित होकर इस कोटि के साधक ऐसे २ कृत्य भी करते हैं जो त्यागियों के मार्ग को कलंकित करने वाले होते हैं । आत्मा का उन्हें भान नहीं होता अथवा भान होता है तो यश की कामना से उस भान की अवहेलना करते हैं इसलिये संयम के नियमोपनियम उन्हें बन्धन रूप मालूम होते हैं। वे बाह्य प्रदर्शन के लिए ही उनका पालन करते हैं या पालन करने का आडम्बर करते हैं। वास्तविक रीति से वे त्याग को नहीं अपनाते । साधक अवस्था या त्यागमार्ग उत्तरदायित्व से पूर्ण है। ऐसे उत्तरदायित्व पूर्ण मार्ग में ऐसे साधकों का मिल जाना प्रति अनिष्ट - कारक होता है। ऐसे मानलोलुपी साधु समाज को विकारों की ओर ले जाते हैं ।
इस प्रकार के साधक मोक्षमार्ग में रमण नहीं कर सकते हैं। वे कामवासनाओं, इच्छाओं और विषयसुखों में प्रासक्ति रखते हैं इसलिए जिनभाषित विधि विधान का सेवन नहीं करते हैं। जब प्राचार्यादि ऐसे साधकों को शिक्षारूप में कुछ कहते हैं तो वे शिक्षा देने वाले की ही निन्दा करने लग जाते हैं । वे श्राचार्यादि गुरुजनों को कहते हैं कि आप इस सूत्र का अर्थ बराबर नहीं समझते हैं - मैं जैसा जानता हूँ वैसा कौन अन्य जानता है ? इत्यादि नाना प्रकार से वे शिक्षादाताओं की अवहेलना करते हैं ।
उपर्युक्त श्रेणी के साधक केवल गुरुजनों की ही अवहेलना नहीं करते परन्तु अन्य सदाचारी, सुशील और क्षमावन्त साधकों की भी निन्दा करते हैं। अपनी पूजा, प्रतिष्ठा और सन्मान बनाए रखने के लिए वे दूसरों की निन्दा करते हैं, दूसरों को भ्रष्टाचारी और शिथिलाचारी कहकर अपने दोष ढाँकने की करते हैं। यह कितनी जघन्यता और निकृष्टता का कार्य है। अपनी जमी हुई प्रतिष्ठा कहीं चली न जाय, सच्चे त्यागियों के त्याग का सन्मान करके लोग कहीं हमें छोड़ न दें हमारा सन्मान कम न हो जाय इस भय से वे सुशील, उपशांत, विवेकपूर्वक संयम का पालन करने वाले एवं सद्गुणी साधकों की निन्दा करने लगते हैं लेकिन इससे उनका उद्देश्य पूर्ण नहीं होता । विवेकी पुरुष जान लेते हैं कि दूसरों की निन्दा करने वाला व्यक्ति स्वयं दयापात्र है । वह स्वयं अपने दोष को प्रकट करता है । सूत्रकार फरमाते हैं कि यह महान् अज्ञानता है। ऐसे विवेकहीन बालक सचमुच द्विगुण अपराध के भागी होते हैं । स्वयं चारित्रहीन हैं यह प्रथम दुर्गुण है इस पर चारित्र सम्पन्न की अवहेलना करना दूसरा अपराध है. ऐसे अपराधी सचमुच दया के पात्र हैं। उनके सामने जब कोई सदाचारियों की प्रशंसा करता है तो वे उसका अपलाप करते हैं । ऐसे साधक निकृष्ट श्रेणी के कहे जा सकते हैं । ये मोक्षमार्ग की आराधना नहीं कर सकते हैं । उनका त्याग केवल नाममात्र और दम्भ है। विवेकी साधकों को यह लक्ष्य में रखकर लोकैणा का त्याग और परनिन्दा का परिहार करना चाहिए ।
नियट्टमाणा वेगे श्रायारगोयर माइक्खति, नाणभट्ठा दंसणलूसिणो, नममाणा वेगे जीवियं विप्परिणामंति, पुट्ठा वेगे नियद्वंति जीवियस्सेव कारणा,
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