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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अध्ययन चतुर्थोद्देशक ] [ ४८ १ सत्थारमेव फरुसं वयंति । सीलवंता उवसंता संखाए रीयमाणा असीला वयमाणस्स बिइया मंदस्स बालया । संस्कृतच्छाया – श्राख्यातमेव श्रुत्वा निशम्य, समनोझा जीविष्यामः एके निष्क्रम्य असंभवन्ते विदह्यमानाः कामैर्गृद्धा अध्युपपन्नाः समाधिमाख्यातमजोषयन्तः शास्तारं परुषं वदन्ति । शीलवन्तः उपशान्ताः संख्यया रीयमाणाः अशीला अनुवदतः द्वितीया मंदस्य बालता । शब्दार्थ - श्राघायं - जिनभाषित तत्त्व कहे जाने पर । सुच्चा =सुनकर | निसम्म= समझ कर । समणुन्ना=माननीय होकर । जीविस्सामो जीवन व्यतीत करेंगे ऐसा विचार कर । एगे = कतिपय । निक्खमंते - दीक्षा लेकर । असंभवंता - मोक्षमार्ग में नहीं चलते हुए । कामेहिं = कामेच्छा से | विडज्झमाणा= जलते हुए । गिद्धा = सुख में मूर्छित होकर । अज्मोववन्ना = विषयों का ध्यान करके | घायं = जिनभाषित । समाहिं = समाधि को । जो सयंता नहीं पाते हुए । संत्थारमेव = शिक्षा देने वाले को ही । फरुसं= कठोर वचन । वयंति= बोलते हैं । सौलमंता = चारित्रसम्पन्न | उवसंता=शान्त क्षमावंत । संखाए - विवेक से | रीयमाणा = वर्ताव करते हुए मुनियों को । असीला कुशील । अणुवयमाणस्स = कहने वाले। मंदस्स = मूर्ख की । बिइया = दूसरी । बालया = अज्ञानता है । 1 भावार्थ --- कुशील के दुष्परिणाम व जिनभाषित तत्र कहे जाने पर उसे सुनकर भी कतिपय व्यक्ति "अपन सभी के माननीय होवेंगे" ऐसा विचार कर दीक्षा धारण करते हैं इसलिए मोक्षमार्ग में नहीं चलते हुए, कामों से जलते हुए, सुख में मूर्छित होकर विषयों में मन करके तीर्थकर भाषित समा को नहीं पाते हुए हितशिक्षा देने वाले की निन्दा करने लगते हैं । तथा कितनेक स्वयं भ्रष्ट होते हुए दूसरे सुशील और क्षमावंत तथा विवेक से वर्तते हुए मुनियों को भ्रष्ट कहते हैं ऐसे शिथिलाचारी ज्ञानियों की सचमुच दूनी मूर्खता समझनी चाहिए । विवेचन - पूर्व सूत्र में साधकों की दो कोटियाँ बताने के बाद अब शस्त्रकार और इस विषय में फरमाते हैं कि कितने ही व्यक्ति इस श्रेणी के होते हैं जो त्याग और संयम को आत्मकल्याण के लिए नहीं स्वीकार करते परन्तु त्यागियों के त्यागबल और चारित्र सम्पन्नता की प्रतिष्ठा, पूजा और सन्मान देखकर उसे प्राप्त करने के लिए ललचाते हैं। हम भी ऐसा वेश धारण करके जनसमुदाय के माननीय व पूजनीय होवेंगे इस आशय से वे त्यागमार्ग स्वीकार करते हैं । उनका आशय ही मूल से अशुद्ध है तो उसके फल की सुन्दरता की आशा ही कैसे की जा सकती है ? जो त्याग रुचिपूर्वक नहीं स्वीकार किया जाता है वह भला कैसे टिक सकता है ? अन्तःकरण के सच्चे वैराग्य से ही त्याग पच सकता है। लेकिन इस श्रेणी के साधक को पदार्थों के प्रति विरक्ति और अनासक्ति पैदा नहीं होती । वह हृदय से पदार्थों की अभिलाषा करता है परन्तु मान प्रतिष्ठा के लोभ से वह ऊपरी दृष्टि से उनका त्याग करता है। हृदय में जो श्रा For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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