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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir षष्ठ अध्ययन चतुर्थोद्देशक ] [४८३ निक्खंतंपि तेसिं दुन्निक्खंतं भवइ, बालवयणिज्जा हु ते नरा, पुणो पुणो जाई पकप्पिति अहे संभवंता विदायमाणा अहमंसीति विउकसे उदासीणे फरुसं वयंति, पलियं पकथे अदुवा पकथे अतहेहिं तं वा मेहावी जाणिज्जा धम्म । ___संस्कृतच्छाया-निवर्तमाना वैके प्राचारगोचरमाचक्षते, ज्ञानभ्रष्टाः दर्शन विध्वंसिनो, नमन्तो वैके जीवितं विपरिणामयन्ति । स्पृष्टा वैके निवर्तन्ते जीवितस्यैव कारणात् निष्कान्तमपि तेषां दुनिष्क्रान्तं भवति । बालवचनीयाः ते नराः पुनः पुनः जाति प्रकल्पयंति अधः सम्भवन्तो विद्वांसो वयमिति मन्यमानाः व्युत्कर्षयेयुः उदासीनान् परुषं वदन्ति पलितं (अनुष्ठानं) प्रकथयेत् अथवा प्रकथयेत् तथ्यैः, तं वा मेधावी जानीयात् धर्मम् । शब्दार्थ-एगे-कितनेक साधक। नियमाणा=संयम से निवृत्त होते हुए भी। प्रायारगोयरं संयम का प्राचार गोचर । आइक्वंति बराबर कहते हैं। नाणभट्ठा-ज्ञान से भ्रष्ट। दसणलूसिणो दर्शन से भ्रष्ट । नममाणा=आचार्यादि को नमस्कार करते हुए भी। एगे-एक साधक । जीवियं संयमित जीवन को । विप्परिणामंति=विकृत कर देते हैं। पुट्ठा वेगे-कितनेक साधक परीषहों के आने पर। जीवियस्सेव करणा-असंयमित जीवन के लिए। नियÉति= संयम से निवृत्त हो जाते हैं । वेसिं-उनका । निक्खंतपि-संयम लेना भी। निक्वंतं-खराब है। ते नरा हु-चे व्यक्ति इस कारण । बालवयणिजा-साधारण पुरुषों द्वारा भी निन्दित होते हैं । पुणो-पुणो बार-बार । जाई-जन्म को। पकप्पिति धारण करते हैं। अहे-नीचे। संभवता होकर भी। विदायमाणा-अपने आपको विद्वान् मानते हुए। अहमंसि ति="मैं ही हूँ" इस प्रकार । विउकसे अपनी तारीफ करते हैं। उदासीणे जो साधक राग-द्वेषरहित है उनको । फरुसं कठोर शब्द । वयंति-बोलते हैं। पलियं-पूर्व के कार्यों का । पकथे कथन करते हैं । अदुवा अथवा । अतहहिं असत्य वचनों द्वारा । पकथे उनकी निन्दा करते हैं । मेधावी-बुद्धिमान् । तं धम्म=धर्म को । जाणिजा-भलीभांति जाने । ... भावार्थ-कितनेक साधक स्वयं शुद्ध संयम पाल नहीं सकते हैं परन्तु वे शुद्ध आचार-गोचर का कथन करके दूसरों को शुद्ध संयम पालने की प्रेरणा करते हैं। परन्तु जो साधक यह कहते हैं कि हम जो पालते हैं वही शुद्ध संयम है दूसरा नहीं, वे मढ़ साधक ज्ञान और दर्शन से भ्रष्ट होते हैं। बाह्य दृष्टि से वे आचार्यादि को नमस्कार करते हैं परन्तु तो भी ऐसे साधक शुद्ध संयम से दूर हैं। कतिपय साधक परीषहों से डरकर असंयमित जीवन के लिए ( मौजमजा करने के लिए ) संयम से भ्रष्ट हो जाते हैं। ऐसे व्यक्तियों का घर छोड़कर प्रव्रज्या लेना भी धिक्कार रूप है। जो संयम से भ्रष्ट होकर भी अपनी विद्वत्ता का अभिमान करने वाले “हम ही विद्वान् हैं" ऐसा दम भरने वाले अपने शिक्षादाताओं को और For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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