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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४८० ] [प्राचाराङ्ग-सूत्रम् देने से जल के अन्दर रही हुई रज नीचे बैठ जाती है और जल निर्मल हो जाता है यह द्रव्य उपशम है। भाव उपशम ज्ञान, दर्शन व चारित्र के भेद से तीन प्रकार का है । आक्षेपणी आदि धर्मकथा के द्वारा जो शान्ति प्राप्त होती है वह ज्ञानोपशम है। इसी प्रकार शुद्ध श्रद्धान रूप दर्शन द्वारा जो उपशम प्राप्त होता है वह दर्शनोपशम है जैसे श्रेणिक राजा ने अपनी दृढ़ श्रद्धा के कारण देवता को भी श्रद्धालु बनाया। क्रोधादि का उपशम और विनय, नम्रता श्रादि की प्राप्ति चारित्रोपशम है। इस प्रकार उपशम भाव को छोड़कर क्रोधी और मानी शिष्य ज्ञानसागर के एक बिन्दु को पाकर अति गर्षित हो जाता है । वह अनन्त ज्ञानियों के वचनों का तिरस्कार करने में नहीं हिचकता । वह अपने आपको ही अनन्त ज्ञानी मानकर गुरुदेव की हीलना करने लगता है और कहता है कि गुरुदेव की बुद्धि तो कुण्ठित है । मैं जैसा अर्थ कहता हूँ वही सही है । इस प्रकार थोड़े से अक्षरों के ज्ञान से वह अपने आपको अनन्त ज्ञानी मानकर अपनी क्षुद्रता का आविर्भाव करता है । जिस प्रकार कुकडे का बच्चा मोती को जवार का दाना समझ कर लेने जाता है परन्तु पास में आने पर उसे छोड़ देता है अर्थात् वह मोती की कदर नहीं कर सकता है इसी तरह क्षुद्र साधु गम्भीर सूत्र के परमार्थ को नहीं समझने से उसे तुच्छ समझता है । परन्तु कुकडे के मोती को फेंक देने से मोती का मूल्य कम नहीं होता। इसी तरह क्षुद्र व्यक्ति अगर शास्त्रों के महत्त्व को नहीं समझ सकता तो इससे शास्त्रों का महत्त्व कम नहीं होता। ऐसे तुच्छाभिमानी साधकों की दशा त्रिशंकु के समान हो जाती है। गुरु की आज्ञा उन्हें कण्टक तुल्य प्रतीत होती है इसलिए न तो वे संयम का आनन्द ले सकते हैं और न संसार का । वे गुरु के अनुशासन को बंधन मानते हैं लेकिन इससे वे अपनी प्रवृत्तियों के बन्धन में जकड़ा जाते हैं जिससे उद्धत बनकर विपरीत प्रवृत्ति में पड़ जाते हैं । ऐसे साधकों का ज्ञान केवल वाचालता के रूप में परिणत होता है । यद्यपि वे अन्य लोगों को अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, विनय, आज्ञापालन आदि का सुन्दर भाषा में उपदेश करते हैं लेकिन स्वयं क्रियात्मक रूप से अपने जीवन में नहीं उतारते । ऐसे साधक लोगों की दृष्टि में भले ही त्यागी और संयमी मालूम होते हों लेकिन वे श्रात्म-सन्मान नहीं पा सकते । आखिर उनका पतन होता है। कई साधक इस कोटि के होते हैं कि वे प्रथम तो उत्साहपूर्वक संयम स्वीकार करते हैं परन्तु पश्चात् वे साताभिलाषी हो जाते हैं और उन्हें संयम के नियमोपनियम बंधन रूप मालूम होने लगते हैं। ऐसे साधक संयम के प्रति असावधान हो जाते हैं और शरीर का तथा अन्य विषयों का मोह जागृत हो जाता है । इसके कारण वे वीतराग की आज्ञा की अवगणना कर देते है और सुखलम्पट हो जाते हैं। साधकों के लिए जो उत्सर्ग और अपवाद मार्ग का कथन किया गया है उसके श्राशय को न समझ कर वे उत्सर्गमार्ग को छोड़कर अपवाद का शरण लेते हैं। तात्पर्य यह है कि इस श्रेणी के साधकों ने त्याग और तप का वास्तविक अर्थ नहीं समझा । प्रथम तो किसी श्रावेशवश अथवा संयोगों से बाधित होकर त्यागमार्ग स्वीकार कर लेते हैं परन्तु बाद में आवेग के शान्त होने से पुनः पदार्थों के प्रति उनका मन दौड़ने लगता है । ऐसे साधक वीतराग की आज्ञा का पालन नहीं करते हैं। प्रथम वर्णित साधकों में और इनमें यह अन्तर है कि उनमें अभिमान और उद्दण्डता होती है, इनमें साताप्रियता होती है। पहली कोटि के साधकों की अपेक्षा ये शीघ्र सुसाध्य हैं । ये दोनों अवस्थाएं हेय हैं । अघायं तु सुच्चा निसम्म, समणुन्ना जीविस्सामो एगे निक्खमंते असंभवंता विडज्झमाणा कामेहिं गिद्धा अझोववन्ना समाहिमाघायमझोसयंता For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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