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षष्ठ अध्ययन चतुर्थोद्देशक ]
[४७६ किये हुए । ते सिस्सा=चे शिष्य । तेसिमन्तिए उनके पास से । पन्नाणं-ज्ञान । उवलब्भ प्राप्त करके । उवसमं शान्तभाव को । हिच्चा छोड़कर । फारुसिय=कठोरता को । समाइयंति=ग्रहण करते हैं । बंभचेरंसि-संयम में। वसित्ता-रहकर । तं प्राणं तीर्थङ्कर देव की आज्ञा को । नो इति मन्नमाणा=नहीं मानते हैं अथवा गुरु की आज्ञा को तीर्थङ्कर की आज्ञा नहीं मानते हैं ।
__ भावार्थ-हे जम्बू ! पूर्वोक्त रीति से वीर और विद्वान् गुरुदेव दिनरात सतत शिक्षा देकर शिष्यों को तैयार करते हैं। उनमें से कितनेक शिष्य गुरुदेव से ज्ञान प्राप्त करके, शान्तभाव को छोड़कर अभिमानी, स्वेच्छाचारी और उद्धत बन जाते हैं। तथा कतिपय शिष्य प्रथम तो संयम में उत्साहपूर्वक सम्मिलित होते हैं परन्तु बाद में सत्पुरुषों की आज्ञा का अनादर करके सुख-लम्पट होकर विविध विषयों की जाल में फसते हैं।
विवेचन-गत उद्देशक के उपसंहार में सूत्रकार ने द्विज-पोत (पक्षी के बच्चे ) के उदाहरण के द्वारा अपरिपक्व साधकों को समर्थ और प्रौढ़ बनाने के लिए प्राचार्य सतत पुरुषार्थ करें यह निरूपण किया है। तदनुसार श्राचार्य शिष्यों को दिन और रात में यथाक्रम प्रथम और चतुर्थ प्रहर में कालिकसूत्र
और अस्वाध्यायकाल को छोड़कर सकल अहोरात्र उत्कालिकसूत्र का अध्ययन करवाते हैं। वे प्राचारादि शास्त्रों का अध्ययन करते हुए कूर्म की तरह इन्द्रियों का गोपन करना चाहिए, युग (धूसरा) प्रमाण भूमि देखते हुए गति करनी चाहिए इत्यादि शिक्षाएँ प्रदान करते हैं । पांच प्रकार के ज्ञान में से श्रुतज्ञान का ही श्रादान-प्रदान हो सकता है, अन्य चार ज्ञानों का नहीं । शेष चार ज्ञान "उप्पाइं ठवणिजाई' कहे गये हैं क्योंकि उनका श्रादान-प्रदान नहीं हो सकता। विशिष्ट ज्ञानसम्पन्न और महावीर प्राचार्यादि एकान्त उपकार बुद्धि और सहज वत्सलता के कारण शिष्यों को श्रुतज्ञान का उपदेश करते हैं और शिष्य भी आचा
र्यादि गुरुजनों से शिक्षा ग्रहण करते हैं। इनमें से कतिपय शिष्य श्राचार्यादि से ज्ञान प्राप्त करके उसे पचाने में असमर्थ होते हैं । ज्ञान को नहीं पचा सकने के कारण वे अभिमानी, स्वच्छन्दाचारी और उद्धत बन जाते हैं । ज्ञान का फल उपशम है । ज्ञान से कषायों को उपशान्ति होनी ही चाहिए । ज्ञान से विनय पैदा होना चाहिए। परन्तु जिस प्रकार ऊँची मात्रा हजम होने पर बल और स्वास्थ्यवर्द्धक होती है परन्तु वही हजम न होने पर विपरीत परिणाम देती है। वह हानिकारक होती है और नवीन रोग को उत्पन्न करती है। इसी तरह जो साधक ज्ञान को नहीं पचा सकते हैं. उनके लिए गुरु श्रादि से प्राप्त किया हुआ ज्ञान-रसायन अभिमानरूपी रोग को उत्पन्न करने वाला हो जाता है। ऐसे साधकों को ज्ञान का अजीर्ण हो जाता है । वस्तुतः अनुभव विना ज्ञान पचता नहीं है । इसीलिए अनुभवी पुरुषों ने जिज्ञासु की योग्यता देखकर ही ज्ञान देने का कथन किया है । जिस प्रकार कुशल वैद्य रोगी की पाचन शक्ति की परीक्षा करने के बाद ही मात्रादि पौष्टिक औषधि देता है उसी तरह जिज्ञासु की योग्यता की परीक्षा के बाद ही उच्चकोटि का ज्ञान उसे देना चाहिए । इसी दृष्टिबिन्दु को लक्ष्य में रखकर ही इस श्रेणी के साधकों के लिए अमुक प्रकार का वाचन, अमुक प्रकार का संग, अमुक प्रकार का खान-पान आदि की नियमबद्धता सूचित की गई है। इन नियमों का पालन करना ही उनके लिए हितकर होता है।
ऐसे अभिमानी शिष्य उपशम भाव का त्याग करते हैं। उपशम दो प्रकार का है-(१) द्रव्य अपराम और (२.) भाव उपयम् । रज आदि सलिल जूल में शिकली अथवा कनक वनस्पति के हाल
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