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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir धूत नाम षष्ठ अध्ययन —चतुर्थोद्देशकः— ( गौरव - परित्याग ) र्गत तृतीय उदशक में शरीर एवं उपकरण धुनन का उपदेश दिया गया है। जो व्यक्ति श्रारामप्रिय (सुख लम्पट) होता है वह उक्त प्रकार का देइदमन नहीं कर सकता। सातागौरव, ऋद्धिगौरव और रसगौरव का परिहार किये बिना देहदमन अशक्य है और देहदमन के बिना वृत्तियों पर विजय प्राप्त करनी दुष्कर है। अतएव इस अध्ययन में गौरवत्रिक के परिहार का उपदेश दिया जाता है। dry " साधना की मांग बड़ा विकेट है। साधना के मार्ग पर चलना फूलों की शय्या पर सोने के समान सरल नहीं है । साधना का पंथ घनी झाडियों से घिरे हुए वन की भांति अटपटा है। काम-क्रोध आदि हिंसक जन्तुओं के आक्रमण से बचने के लिए सतत सावधान रहना पड़ता है। इस वन में मान्यता और सिद्धान्तों की कई टेढ़ी मेढ़ी पगदंडियाँ फूटती हैं जिनमें पथिक असमंजस में पड़ जाता है तदपि उसको उनमें से अपना मार्ग शोधता ही पड़ता है। उस मार्ग पर चलते हुए सत्पुरुषों के शिक्षामय वचन साठा - प्रियंता के कारण कण्टक के समान उसके खुले पैरों में चुभते हैं। इस प्रकार साधना का मार्ग विकट है। अनेकों संकटों से भरा हुआ है। इस मार्ग पर सफलतापूर्वक चलने के लिए सद्गुरु रूप पथप्रदर्शक आवश्यकता होती हैं। जिस व्यक्ति ने सद्गुरुदेव रूप पथप्रदर्शक की शरण स्वीकार की है वह इधर 'उधर नहीं भटकता हुआ इस मार्ग को पार कर लेता है। कई साधक अभिमान के आवेश में गुरुदेव की शरण नहीं स्वीकार करते अथवा शरण लेकर उद्धत हो जाने से नहीं पचा सकते। अहंकार ऐसे साधकों की बुद्धि को विकृत बना देता है। ऐसे उद्धत शिष्य साधना के मार्ग में इतस्ततः भटकते फिरते हैं परन्तु आगे नहीं बढ़ पाते । यहाँ ऐसे ही गौरव से गर्वित शिष्यों का उल्लेख करते हुए सूत्रकार फरमाते हैं: Fr एवं तैं सिस्सा दिया ये राथो य अणुपुव्वेण वाइया तेहिं महावीरेहिं पन्नाणमन्तेहिं तेसिमन्तिएं पन्नाणमुवलब्भ हिचा उवसमं फारसियं समाइयंति, वसित्ता बंभचेरंसि श्राणं तं नो ति मन्नमाणा । संस्कृतच्छाया - एवन्ते शिष्या दिवा च रात्रौ चानुपूर्वेण वाचितास्तैर्महावीरैः प्रज्ञानवद्भिः तेषामन्तिके प्रज्ञानमुपलभ्य त्यक्त्वोपशमं पारुष्यं समाददति, उषित्वा ब्रह्मचर्ये भाज्ञां तां नो इति मन्यमा #1 शब्दार्थ — एवं - इस प्रकार । तेहिं-उन । महावीरेहिं वीर | पन्नाणमंतेर्हि=विद्वान् गुरुदेव के द्वारा । दित्राय राम्रो य= दिन और रात । श्रणुपुव्वेण = क्रमशः । वाइया = शिक्षित For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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