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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir षष्ठ अध्ययन तृतीयोद्देशक ] [४७३ और मान न होना चाहिए। समत्व भाव द्वारा उसे राग-द्वेष तथा कषायरूप भव-संतति के कारणों को नष्ट करना चाहिए । तपस्वी साधक अपने उत्कृष्ट तप का अभिमान करके अन्य साधकों की निन्दा न करे। गच्छ में सभी तरह के साधक होते हैं । कोई जिनकल्पी, कोई प्रतिमाधारी स्थविरकल्पी, कोई मासक्षपण करने वाला, कोई अर्द्धमासक्षपण करने वाला, कोई अति दीर्घ तप करने वाला, कोई अल्प तप करने वाला और कोई नित्यभोजी भी होता है। इन सभी को तीर्थंकर की आज्ञा में विचरते हुए जानकर किसी की निन्दा न करनी चाहिए। जिनकल्पी अथवा प्रतिमाधारी कोई साधक छह मास तक अभिग्रहादि के कारण भिक्षा प्राप्त न करे तो उस तप का अभिमान करके नित्यभोजी साधक से यह न कहे कि "तू तो नित्य खाने वाला है, तूने तो खाने के लिए ही सिर मुंडाया है" । विवेकी गीतार्थ साधु इस प्रकार दूसरों की हीलना नहीं कर सकता है। वह सभी को समदृष्टि से देखता है। तपश्चर्या की सफलता राग-द्वेष और कषाय के क्षय करने में ही है। कषायों को कुश करना ही तप का उद्देश्य है । जो साधक इस तरह कषायों का क्षय करने के साथ तपश्चरण करते हैं वे भवसन्तति का क्षय कर देते हैं इसलिए वे संसार-सागर से पार हो चुके हैं। वे कर्म और भवबन्धनों से मुक्त हो जाते हैं और सर्व-सावद्य अनुष्ठान से विरत हो जाते हैं। ऐसे साधकों को संसार में रहते हुए भी तीर्ण और मुक्त कहा गया है इसका कारण यह है कि वे आन्तरिक शत्रओं पर विजय पा चुके हैं। आन्तरिक शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर लेने पर संसार का क्रम नष्ट हो जाता है-जन्म-मरण की परम्परा नष्ट हो जाती है। वे मुक्त और तीर्ण तुल्य हैं। उनके रागादि दूर हो जाते हैं। राग-द्वेष ही संसार के निर्माता हैं । इनका अभाव होने से संसार में रहने पर भी ऐसे गीतार्थ साधकों को तीर्ण, मुक्त और विरत कहा गया है। . सूत्र में आये हुए "बाहवो" शब्द का अर्थ ( बाहवः ) भुजाएँ करके ऊपर का अर्थ किया गया है। "बाहवो" का दूसरा संस्कृतरूप "बाधा भी हो सकता है। तात्पर्य यह होता है कि जो साधक प्रज्ञावान होता है वह महान् परीषहों के आने पर भी उस पीड़ा को अल्प मानता है। शारीरिक पीड़ा होने पर भी उसे मानसिक पीड़ा नहीं होती क्योंकि वह समझता है कि मैं तो कर्म-क्षय करने के लिए निकला हूँ । कष्ट उठाए विना कर्मों का फल कैसे भोगा जा सकता है ? वह अपने आपको ही दुख का कारण मानता है। वह दूसरों को दोष नहीं देता । इसलिए उसे मानसिक संताप नहीं होता । इस प्रकार परीषह-सहिष्णु साधक भवसागर से पार, कर्मबन्धन से मुक्त और सर्वथा कर्म से निर्लेप हो जाते हैं। विरयं भिक्खं रीयन्तं चिरराश्रोसियं अरई तत्थ किं विधारए ? संधेमाणे समुट्ठिए, जहा से दीवे असंदीणे एवं से धम्मे पारियपदेसिए, ते अणवकंखमाणा पाणे अणइवाएमाणा दइया मेहाविणो पंडिया, एवं तेसिं भगवो अणुटाणे जहा से दियापोए एवं ते सिस्सा दिया य रात्री य अणुपुग्वेण वाइय त्ति बेमि । संस्कृतच्छाया-विरतं भिक्ष रीयमाणं चिररात्रोषितमरातिस्तत्र किम विधारयेत् ? संदधानः समत्थितः, यथा सः वीपः असन्दीनः एवं स धर्मः भार्यप्रदेशितः, तेऽनवकांक्षन्तः प्राणिनोऽनतिपातयन्तः For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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