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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४७२ । राङ्ग-सूत्रम प्रागयपन्नाणाणं किसा बाहवो भवंति पयणुए य मंससोणिए, विस्सेणिं कटु परिन्नाय एस तिरणे मुत्ते विरए वियाहिए त्ति बेमि । संस्कृतच्छाया- श्रागतप्रज्ञानानां कृशाः वाहवः भवन्ति, प्रतनुके च मांसशोणिते, विश्रेणी कृत्वा परिज्ञाय, एष स्तों मुक्तो चिरतो व्याख्यात इति ब्रवीमि । शब्दार्थ-प्रागयपन्नाणाणं-ज्ञानसम्पन्न साधकों की। बाहवो भुजाएँ। किसा= पतली । भवति होती हैं । मंस सोणिए मांस और खून | पयणुए बहुत कम होता है । विस्सेणिं कट्ट-रागहेप कपाच रूप संसार की श्रेणीको नष्ट करके । परिन्नाय समदृष्टि से तत्व जानकर वर्तते हैं इसलिए । एस ऐसे साधक । तिएणे-संसार समुद्र से तिरे हुए। मुत्ते बन्धन से मुक्त। विरए पापों से निवृत्त । वियाहिए कहे गये हैं । त्ति बेमि-ऐसा मैं कहता हूँ। भावार्थ-ज्ञानसम्पन्न साधकों की भुजाएँ पतली होती हैं । उनके शरीर में मांस और खून अति अल्प होता है । वे रागद्वेष और कषाय रूप संसार श्रेणीका समभाव से विनाश करके उच्च क्षमादि गुण धारण करते हैं। ऐसे मुनि संसार समुद्र से तिरे हुए, भवबन्धन से मुक्त और पापकर्म से निवृत्त कहे गये हैं ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-ऊपर के सूत्र में परीषहों को सहन करने का उपदेश दिया गया है। परीषहों को सहन करने वाला साधक शरीर से मोह नहीं रखता है अतएव शरीर की सेवाशुश्रुषा बराबर नहीं होती है इसलिए यह स्वाभाविक है कि उस गीतार्थ साधक का शरीर कृश हो । परीषह-सहन और तपश्चरण द्वारा उसका शरीर कृश हो जाता है। शरीर का पोषण पौष्टिक सरस भोजन द्वारा होता है और गीतार्थ तपस्थी. साधक सरस आहार को छोड़कर अन्तप्रान्त आहार करता है। ऐसा रूक्ष श्राहार रसरूप में परिणत नहीं होता, उसका केवल खल भाग ही बनता है । इसके अभाव में रक्त, मांस आदि की उत्पत्ति नहीं हो सकती। इसलिए यह सहज ही है कि उसके रक्त और मांस अति अल्प हो । अचेल होने के कारण तृणस्पर्श आदि परीषहों के कारण शारीरिक कष्ट होने से उसका शरीर कृश हो जाता है और धीरे २ खून और मांस अति अल्प हो जाते हैं । यह कहकर सूत्रकार ने यह ध्वनित किया है कि ज्ञानी साधकों के लिए. भी देहदमन और तपश्चरण की अति आवश्यकता होती है। इसका अर्थ कोई यह न समझने की मूर्खता करे कि जो शरीर से दुबला पतला है वही मोक्ष का अधिकारी है। इस कथन का तात्पर्य यह है कि मोक्षार्थी साधक को शरीर शुश्रूषा का मोह नहीं होता । तपश्चर्या उसके लिए सहज हो जाती है । ऐसे महर्षि का शरीर जैसा कृश होता है वैसे ही उसके कषाय भी कृश होने चाहिए। उसमें क्षमादि गुणों का विकास होना चाहिए । तपश्चर्या का उपदेश करते हुए "आगतप्रज्ञानानां' (ज्ञानी ) यह विशेषण देकर सूत्रकार यह सूचित करते हैं कि तपश्चर्या विवेक-बुद्धि पूर्वक होनी चाहिए । तपश्चर्या का उद्देश्य वृत्तियों का दमन करने का है । तपश्चर्या करके भी अगर क्रोध चौर मान आदि कषायों की वृद्धि देखी जाय तो वह अविवेकमय तपश्चरण कहा जायगा। ऐसे तप से और ऐसे कष्ट सहन से विशेष आध्यात्मिक लाभ नहीं होता । तपश्चयों की सफलता देह-दमन के साथ ही कषायों के दमन से होती है । तपस्वी साधक में क्रोध For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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