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४७४ ]
[आचाराग-सूत्रम्
दयिता मेधाविनः पण्डिताः, एवं तेषां भगवतोऽनुष्ठाने यथा स द्विजपोतः एवन्ते शिष्या दिवा रात्रिच अनुपूर्वेण वाचिता इति ब्रवीमि ।
शब्दार्थ-विरयं पापकर्म से निवृत्त । चिरराअोसियं लम्बे समय में संयम पालते हुए । रीयन्तं अप्रशस्त भावों से निकल कर प्रशस्त भावों में रमण करने वाले । भिक्खु साधु को । तत्थ अरइ-संयम में अरति । किं विधारए क्या चलित कर सकती है ? समुट्ठिए= यह साधक जागृत होकर । संघमाणे सदा शुभ अध्यवसायों की श्रेणियों पर चढ़ता जाता है। से वह | असंदीणे पानी से न ढंक सकने वाले । दीवे जहा=द्वीप के तुल्य है । से वह ।
आरियपदेसिए तीर्थङ्कर भाषित । धम्मे=धर्म भी । एवं इस प्रकार द्वीप तुल्य है। ते वे साधक । प्रणवकंखमाणा-भोगों की इच्छा नहीं करते हुए। पाणे अणइवाएमाणा-प्राणियों की हिंसा नहीं करते हुए। दइया सर्वलोक के प्रियपात्र होकर । मेहाविणो बुद्धिमान् । पंडिया-पंडित पद प्राप्त करते हैं । जहा जिस प्रकार । से दियापोए-पक्षी का बच्चा पक्षियों द्वारा सावधानी से पाला योषा जाता है। एवं इसी प्रकार । ते सिस्सा=वे शिष्य । दिया अराओ अ-दिनरात । अणुपुब्वेण यथाक्रम । तेसिं भगवनो-उन भगवान् महावीर के । अणुट्ठाणे धर्म में । वाइया= शिक्षित किये जाते हैं । त्ति बेमि-ऐसा मैं कहता हूँ।
भावार्थ-हे जम्बू ! जो असंयम से निवृत्त हैं और बहुत लम्बे समय से संयम में रम रहे हैं तथा उत्तरोत्तर शुभ अध्यवसायों पर चढ़ने वाले हैं उन साधकों को संयम में उत्पन्न अरति क्या विचलित कर सकती है ? अर्थात् नहीं कर सकती । क्योंकि ऐसा साधक सदा जागृत रहकर उत्तरोत्तर शुभ अध्यवसायों की श्रेणियों पर चढ़ता जाता है इसलिए वह पानी से कदापि व्याप्त न होने वाले द्वीप के समान है । तीर्थकर-भाषित धर्म भी ऐसे ही द्वीपतुल्य है । मुनि साधक भोगों की इच्छा नहीं करते हुए, जीवहिंसा न करते हुए सर्वलोक के प्रियपात्र बनकर मर्यादा में रहकर पंडित पद प्राप्त करते हैं । जिस प्रकार पक्षी अपने बच्चे को सावधानी पूर्वक पाल-पोष कर समथ बनाते हैं इसी प्रकार जो शिष्य अभी भगवान् के धर्म में अच्छी तरह रमे नहीं हैं उन्हें आचार्यादि समथ साधक, दिनरात सावधानी पूर्वक शिक्षा देकर धर्म में कुशल बनाते हैं । ( इस तरह वे शिष्य भी शिक्षा पाकर संसार को तैर सकने में समर्थ होते हैं)।
विवेचन-परीषहों और संकटों के कारण कई साधकों को संयम में अरति (ग्लानि) उत्पन्न हो जाती है । वे जिस मुमुक्षुता और वैराग्यवृत्ति से प्रेरित होकर संयम स्वीकार करते हैं वह संकटों के उपस्थित होने पर अधीरता के कारण लुप्तप्राय हो जाती है। जिस प्रकार स्वच्छ वस्त्र पर काला दाग लगने से उसकी स्वच्छता नष्ट हो जाती है उसी तरह चित्तवृत्ति पर जब संकटों से उत्पन्न हुई ग्लानि का असर हो जाता है तो वह संयम की पवित्रता का नाश कर देती है। जो साधक लम्बे काल से संयम का पालन करते चले आ रहे हैं. उन्हें भी कदाचित इन्द्रियों की चञ्चलता अौर प्रबलता से अथवा मोह-शक्ति की
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