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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir षष्ठ अध्ययन तृतीयोद्देशक ] [४७१ सव्वेवि जिणाणाए जहाविहिं कम्मखवणअट्ठाए । विहरंति उज्जया खल सम्म अभिजाणइ एवं ॥३॥ अर्थात्-जो एक वस्त्र वाला है, जो दो वस्त्र रखने वाला है, जो तीन वस्त्र रखने वाला है, वह भी जिनेन्द्र देव की आज्ञा में है अतएव एक दूसरे की हीलना-निन्दा न करनी चाहिए। शरीर-संहनन और धैर्य आदि कारणों के कारण सचेलक अचेलक आदि भिन्न-भिन्न कल्प कहे गये हैं अतएव अधिक शक्ति चाला सर्वथा वरनरहित रहे लेकिन वह अपने आपको ऊँचा और दूसरे वस्त्रधारियों को नीचा समझ कर उनकी हीलना न करे । इसी तरह जो वस्त्राधारी हैं वे अपने आपको इससे हीन न समझे। सभी साधक कर्मक्षय करने के लिए जिनाज्ञा में उद्यत होकर विचरते हैं इस प्रकार शुद्ध भाव रखने चाहिए! एक दूसरे की अवहेलना-अपमान न करना चाहिए । कैसा सुन्दर उपदेश है ! कैसा उदार जिनेन्द्र देव का शासन है। पर साथ ही वर्तमान काल के साधकों का पारस्परिक व्यवहार अति शोचनीय है। कहाँ तो प्रभु महावीर का यह उदार-व्यवहार करने का उपदेश ? और कहाँ आज के साधु मुनिराजों की "हम उत्कृष्ट क्रिया पात्र तुम ढीले पासत्थे" के झूठे आधार पर वैमनस्यवर्द्धक प्रवृत्ति ? यह विचारणीय है। सच्चा साधक कभी दूसरे की निन्दा नहीं कर सकता। वह अकृत्य करने वाले को हित-बुद्धि से शिक्षा देता है लेकिन उससे घृणा नहीं करता । निन्दा घृणापूर्वक ही होती है । तीर्थंकर देव के उपदेश को भलीभांति विचार करके उसका सेवन करना चाहिए । अब सूत्रकार यह फरमाते हैं कि यह कथन अशक्यानुष्ठानरूप नहीं है । इसका तात्पर्य यह है कि यह केवल आदर्श ही आदर्श नहीं है परन्तु यह आदर्श व्यावहारिक है। इस कथनानुसार प्रवृत्ति करना असंभव नहीं है। बहुत से लोग बहुत बड़े आदर्श की बात करते हैं लेकिन व्यवहाररूप में-क्रियात्मकरूप में कुछ नहीं करते वह आदर्श निरुपयोगी है । भगवान् का कथन इस प्रकार अव्यवहार्य नहीं है अथवा कोई यह कहे कि ज्वर को दूर करने के लिए तक्षकनाग के मस्तक में रहे हुए मणि को प्राप्त करो तो उसका यह कथन अशक्य अनुष्ठान है । अर्थात्-यह कार्य नहीं हो सकता । भगवान का उपदेश इस प्रकार का अशक्य अनुष्ठान रूप नहीं है । अनेक महावीरों ने इस उपदेश के अनुसार प्रवृत्ति की है। अनेक वीर पुरुषों ने यावज्जीवन, बहुत वर्षों तक, अनेक पूर्वो तक संयम का पालन किया है और संयम के मार्ग में आने वाले अनेक परीषहों को सहन किया है । "पूर्व" यह एक जैन पारिभाषिक संज्ञा है। ७०,५६०००००००००० वर्षों का एक पूर्व होता है । भगवान् ऋषभदेव से लगाकर दसवें तीर्थंकर श्री शीतलनाथ भगवान के समय तक पूर्व के आधार पर आयुष्य होते थे उसकी अपेक्षा से "पूर्व" का कथन है । श्रेयांसनाथ भगवान् से वर्ष संख्या की प्रवृत्ति समझनी चाहिए। सूत्रकार शिष्य को परीषह-सहन के लिए प्रेरणा करते हुए कहते हैं कि महा समर्थ पुरुषों को भी कष्ट सहन करने पड़ते हैं। किये हुए कमों का फल समर्थ पुरुषों को भी सहन करना पड़ता है । कर्म अपने कर्ता को फल दिए बिना नहीं छोड़ते । अतएव कर्म करते समय ही उसके फल का विचार करना चाहिए। जीव प्रसन्नता के साथ कर्म बाँधते हैं और फल भोगते समय रोते हैं। यह उनकी अज्ञानता है । कष्ट के समय जीव को यह विचारना चाहिए कि मैंने हँसते २ कर्म बाँधे अतएव हँसते २ ही उनका फल भी भोगना चाहिए। सुख और दुख अपने कर्म का परिणाम है यह जानकर अन्य को दोष नहीं देना चाहिए। अपने कर्म का फल जानकर परीषहों को सम्यक् भाव से सहन करना चाहिए। महावीर पुरुषों के आदर्श को सन्मुख रखकर कष्ट सहन करना चाहिए। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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