________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
४७० ]
[आचाराग-सूत्रम्
शब्दार्थ-जहेयं जिस प्रकार । भगवया भगवान् ने । पवेइयं फरमाया है । तमेव= उसको । अभिसमिच्चा=जानकर । सव्वश्रो सभी प्रकार से । सव्वत्ताए पूर्णरूप से । सम्मत्तमेव= सम्यक्त्व के ही। समभिजाणिज्जा-अभिमुख वर्ताव करे । एवं इस प्रकार । तेसिं महावीराणं= उन महावीर पुरुषों ने । चिरराय बहुत समय तक । पुव्वाई-पूर्वी तक । वासाणि=वर्षों तक । रीयमाणाणं संयम में रहकर । दवियाणं भव्य पुरुषों ने । अहियासियं जो कष्ट सहन किए हैं वे। पास-तू देख।
भावार्थ-भगवान् ने जिस आशय से जो कहा है उसे उसी तरह स्वीकार करके सभी तरह से, पूणरूपेण, पवित्रभाव से वर्ताव करना चाहिए । इस तरह पहले कई महावीर पुरुषों ने बहुत समय तकपूर्वो तक-वर्षों तक संयम का पालन करके जो परीषह सहन किए हैं उनकी ओर हे शिष्य ! तू दृष्टि फेंक।
विवेचन-पूर्ववर्ती सूत्र में उपकरण-लाघव से कर्मलाघव होने का कहा गया है और इस तरह लघुभूत होने में जो परीषह प्राप्त हों उन्हें सहन करने की प्रेरणा की गई है। श्री सुधर्मास्वामी इस कथन की विशेष महत्ता प्रकट करने के लिए यह फरमाते हैं कि यह कथन मैं नहीं कहता लेकिन साक्षात् सर्वज्ञ, सर्वदृष्टा प्रभु महावीर का यह अनुभवपूर्ण फरमान है। प्रभु के उपकरण-लाघव के इस कथन को हृदयंगम करके सब तरह से लघुभूत होकर विचरना चाहिए। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से लघुभूत होना चाहिए । द्रव्य की अपेक्षा से आहार और उपकरणों की लघुता रखनी चाहिए। क्षेत्र की अपेक्षा सर्वत्र ग्राम नगरादि में लघुभूत होकर विचरना चाहिए । काल की अपेक्षा दिवस और रात्रि में और भाव की अपेक्षा से कृत्रिमता को त्याग कर पवित्र भाव से लघुभूत होकर प्रभु के कथन के श्राशय को बराबर समझ कर शुद्धभाव अथवा समभावपूर्वक आचरण करना चाहिए। सूत्रकार ने “सम्मत्त" शब्द दिया है इसका टीकाकारने यह स्पष्टीकरण किया है:
प्रशस्तः शोभनश्चैव एकः सङ्गत एव च ।
इत्येतैरुपसृष्टस्तु भावः सम्यक्त्वमुच्यते ॥ अर्थात्-कल्याणकारी, शुभ और एकान्त संगत (हितकारी) भाव सम्यक्त्व तत्त्व है । इस शुद्धभाव रूप सम्यक्त्व को ज्ञ परिज्ञा से जानना और प्रासेवन परिज्ञा से आचरण करना चाहिए । शुद्धभाव वाला अचेलक साधक अपनी क्रिया की उत्कृष्टता का अभिमान न करे और अन्य एक दो या तीन यथाकल्प वस्न रखने वाले की निन्दा न करे । जो व्यक्ति अन्य की निन्दा करता है वह शुद्धभाव नहीं रख सकता है । साधक को आत्म-विशुद्धि से प्रयोजन है, अन्य की निन्दा से नहीं । कहा भी है:
जो वि दुवत्थतिवत्थो एगेण अचेलगो व संथरइ । ण हु ते हीलन्ति परं सव्वेऽपि य ते जिणाणाए ॥१॥ जे खल विसरिसकप्पा संघयणधिइयादिकारण पप्प । गावमबह या य हीणं अप्पाणं मनइ तेहिं ॥२॥
For Private And Personal