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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पष्ठ अध्ययन तृतीयोद्देशक ] [४६६ रहते हैं इसलिए सर्वथा निर्वस्त्र रहना लोकजीवन की दृष्टि से अव्यावहारिक लगता है। तदपि किसी प्रकार का अाग्रह रखना ठीक नहीं है । समन्वयदृष्टि से इसका विचार करना चाहिए। सूत्रकार के 'अचेल' शब्द के पीछे जो भावना छिपी है वह विचारणीय है । अल्प वस्त्र अथवा निर्वख दोनों के अन्दर उपाधि घटाने का उद्देश्य है । यदि यह उद्देश्य फलित होता तो साधन के रूप में यथाकल्प वस्त्र हों तो भी बाधाजनक कुछ नहीं होता और यदि यह उद्देश्य फलित नहीं होता हो तो निर्वस्त्र रहने में कोई विशेषता नहीं मालूम होती । असली उद्देश्य आसक्ति को नष्ट करना है। आवश्यक वस्त्र यदि ममत्व भावरहित होकर केवल संयमोपकरण मानकर रखे जाय तो आत्मिक-विकास में कोई बाधा उपस्थित नहीं होती। अगर आसक्ति नहीं घटी है तो निर्वस्त्र अवस्था में भी आत्मिक विकास नहीं हो सकता। वस्त्र में प्राथवा वस्त्रों के त्याग में मुक्ति नहीं है परन्तु कषायों के त्याग में मुक्ति है। वस्त्र और निर्वस्त्र के उद्देश्य को भूलकर एकान्त पक्ष के श्राग्रह में पड़कर वर्तमान जैनसमाज कषाय की वृद्धि करके अपना अहित कर रही है। इससे विचारशील को दुख हुए बिना नहीं रहता । भगवान् महावीर का अनेकान्त सिद्धान्त विश्व के सभी तत्त्वों का समन्वय करता है वहाँ जैनसमाज का यह पक्षाग्रह अवश्य शोचनीय है। अचेलकता का कथन करने के बाद अब सूत्रकार अचेलकदशा में होने वाले परीषहों (संकटों) को समभाव से सहन करने का उपदेश फरमाते हैं । अचेल साधक को कदाचित् तृण की शय्या पर सोने का प्रसंग प्राप्त हो तब तृण शरीर में चुभे अथवा वस्त्राभाव से ठंड लगे या गर्मी से त्राण न हो सके अथवा खुले शरीर को डॉस, मच्छर आदि कांटे इत्यादि प्रतिकूल उपसर्ग प्राप्त हो तो मुनि साधक उन्हें शान्ति से सहन करे । यहाँ नग्नता (अल्पवत्रता) की कसौटी है । नग्न साधक देहाध्यास से परे हो जाता है। देहाध्यास से परे होने में ही नग्नता की सफलता है । वस्त्रों को त्याग देने पर शरीर को ठंड, गर्मी या दंशमशकादि से बचाने के लिए कृत्रिम उपाय काम में लिए जांय तो वह वस्नत्याग निरुपयोगी और कृत्रिम समझना चाहिए । नग्न हो जाने में विशेषता नहीं है किन्तु नग्नता को सहज साध्य बनाने में विशेषता है। यद्यपि नग्नता प्रकृति के अधिक अनुकूल है तदपि केवल नग्नतामात्र से प्रकृति के अनुकूल नहीं बना जा सकता । प्रकृति के अनुकूल बनने वाले की प्रत्येक क्रिया में प्रकृति की अनुकूलता रहती है। प्रकृति के अनुकून बनने के लिए देह के ममत्व को छोड़ना पड़ता है। जो साधक देह पर के ममत्व को जीत लेता है उसको नग्नता सहज हो जाती है। वह प्रतिकूल परीषहों को परीषह नहीं जानता। परोषहों के उपस्थित होने पर उसे दुख नहीं होता । वह देहाध्यास से परे हो जाता है इसलिए शान्ति के साथ वह परीषहों से क्रीड़ा करता है। वह सहज तपस्वी होता है । वह परीषहों का प्रतिकार नहीं करता। वह उन्हें कर्मभार से मुक्त होने का साधन मानता है । वह साधक द्रव्य और भाव से लघुभूत हो जाता है। बाह्य उपाधि के अभाव से द्रव्य से लघु और कर्मभार से छूटने से भाव से लघु होता है। वह निश्चत भाव से साधना में स्थित होता है । वह सहज तपस्वी समझा जाता है। जहेयं भगवया पवेइयं तमेव अभिसमिच्चा सव्वश्रो सम्बत्ताए सम्मत्तमेव समभिजाणिजा, एवं तेसि महावीराणं चिररायं पुवाई वासाणि रीयमाणाणं दवियाणं पास अहियासियं । ___ संस्कृतच्छाया—यथेदं भगवता प्रवेदितं तदेवाभिसमेत्य सर्वतः सर्वात्मना सग्यक्त्वमेव समभिजानीयात् । एवं तेषां महावीराणां चिररात्र पूर्वाणि वीण रीयमाणानां द्रव्याणां पश्यातिसोढम् । For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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