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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir .४६८] [आचाराङ्ग-सूत्रम् अन्य सामान्य प्राणियों की आवश्यकताओं के समान अमर्यादित नहीं होतीं। कई व्यक्ति यह कहते हैं कि पुण्ययोग से हमें भोग्य पदार्थ प्राप्त हुए हैं उनका हम उपभोग क्यों न करें ? हमें जो वस्तु प्राप्त है उसका उपभोग करने का हमारा हक है । परन्तु यह कथन योग्य नहीं है। मनुष्यों को यह समझना चाहिए कि वे पदार्थों के मालिक नहीं है वरन् मात्र विनिमय करने वाले हैं। यह समझ कर प्रत्येक व्यक्ति को मर्यादित वस्तुओं का ही उपयोग करना चाहिए। आज मनुष्यों की धनसंग्रह और पदार्थों की मालिकी की भावना इतनी असीम और अमर्यादित रूप से बढ़ गयी है कि जिसके कारण संसार में अशान्ति, भय और दुख के ही दृश्य दिखाई देते हैं । संयमी साधक, सामान्य मनुष्य प्राणियों की भूमिका से बहुत ऊँचा उठा रहता है अतएव उसकी जवाबदारी विशेष है । इसलिए संयमी साधक, संग्रह तो दूर रहा, पदार्थमात्र का त्याग करता है। धर्मोपकरणों को साधन के रूप में स्वीकार करता है लेकिन उन पर भी ममत्वभावना नहीं रखता । इस बात को समझाने के लिए सूत्रकार ने यहाँ अचेलक भावना का वर्णन किया है। जितनी उपधि कम होती है उतनी ही उपाधि कम होती है जितनी उपधि अधिक होती है उतनी ही उपाधि बढ़ती है यह निर्विवाद बात है । जो व्यक्ति उपधि का त्याग करता है वह विविध प्रपञ्चों से मुक्त हो जाता है। साधक अपने शरीर में ममत्व नहीं रखता है तो वह अन्य पदार्थों में ममत्व बुद्धि कैसे कर सकता है ? साधक संयम में रहता हुआ आवश्यक वस्त्रादि साधन की तौर पर रखता है लेकिन उसे इस प्रकार की चिन्ता नहीं होती है कि मेरा वस्त्र जीर्ण हो गया है, मैं वनरहित हो जाऊँगा, मेरे शरीर की रक्षा के लिए अथवा शीत, आतप से व्याकुल होने पर वस्त्राभाव के कारण क्या करूँगा ? इसलिए भावक के पास से नया बस याचंगा अथवा जीर्ण वस्त्र को सीने के लिए सूई-डोरा याचूँगा, सूई-डोरा मिलने पर जीर्ण वस्त्र को सांधूंगा, सीऊँगा, छोटा होने पर दूसरा वन-खण्ड जोगा अथवा बड़ा होने पर वनखण्ड निकालंगा, इस प्रकार तैयार होने पर पहिनंगा उससे शरीर ढांकंगा। इस प्रकार के अध्यवसाय संसारभीरू धर्मप्रवेण साधक के हृदय में नहीं होते हैं । वह आसक्तिरहित साधक इस चिन्ता से सर्वथा मुक्त रहता है। यहाँ "अचले" शब्द में अल्प के अर्थ में नञ् समास हुआ है। अर्थात्-अति आवश्यक और अति अल्प वस्त्रधारी साधक को इस प्रकार की वस्त्र सम्बन्धी चिन्ता नहीं होती है अथवा यह सूत्र जिनकल्पी की अपेक्षा से समझना चाहिए । सर्वथा वस्त्ररहित साधक को वस्त्र सम्बन्धी चिन्ता कदापि नहीं होती। जिनकल्पी साधक पाणि-पात्र होते हैं । वे पात्र का भी त्याग करते हैं और हाथ में ही भोजन ग्रहण करते हैं। वे पात्रादि सात प्रकार के नियोग से रहित होते हैं। वे मुखवस्त्रिका और रजोहरण रखते हैं। ऐसे जिनकल्प वाले साधक को वस्त्रादि सम्बन्धी चिन्ता नहीं होती। धर्मी के अभाव में धर्म कैसे हो सकता है ? वस्त्र का ही अभाव है तो तत्सम्बन्धी जीर्णता, सांधना, सीना श्रादि का विचार हो ही कैसे सकता है ? जो जिनकल्पी नहीं है और स्थविर कल्पी हैं वे पात्रादि नियोग से युक्त होते हैं और यथाकल्प वस्त्र धारण करते हैं। ऐसे कल्पानुसार वस्त्रधारी साधक वस्त्र की जीर्णता होने पर भी ऐसी चिन्ता नहीं करते। इस तरः दोनों तरफ अर्थ की सुसंगति समझनी चाहिए । वर्तमान समय में "अचेल" शब्द के अल्पमात्र और निर्वस्त्र इस प्रकार के दो अर्थों में से एक के श्राप के कारण भगवान महावीर का अखंड शासन दो भोगों में विभक्त हुआ दिखाई देता है । ये दो भाग श्वेताम्बर और दिगम्बर नाम से विख्यात हैं। प्राचीन काल में जिनकल्पी मुनिवर वनवासी या गुफावासी होते थे। वे वसतियों से दूर रहकर आत्म-साधना करते थे। आजकल तो जैनमुनि वसति में For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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