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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ PE प्रथम उद्देशक ] तण्डुल प्रमाण, कोई अंगुष्ठ पर्व प्रमाण, कोई दीप की शिखा के समान, कोई हृदयाधिष्ठित मानते हैं; परन्तु सब उसे औपपातिक मानते हैं । क्रियावादियों के मत से आत्मा ही नहीं है तो उसका औपपातिकत्व कहाँ से हो सकता है ? अज्ञानिक आत्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध में विवाद नहीं करते किन्तु वे यह मानते हैं कि आत्मा के ज्ञान से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता है। वे ज्ञान की अपेक्षा अज्ञान को ही अच्छा समझते हैं। वैनयिक भी आत्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध में आपत्ति नहीं करते किन्तु वे विनय को ही मोक्ष का साधन मानते हैं, अन्य किसी को नहीं । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir उक्त चारों वादियों के मिलकर ३६३ भेद बताये गये हैं। वे इस प्रकार हैं: - असियसयं किरियाणं अकिरियवाईण होइ चुलसीई । अन्नाणिय सत्तट्टी वेणइयाण च बत्तीसा ॥ क्रियावादियों के १८०, अक्रियावादियों के ८४, अज्ञानिकों के ६७ और वैनयिकों के ३२ भेद हैं। ये सब मिलकर ३६३ होते हैं। ये भेद इस प्रकार बनते हैं: जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष इन नव पदार्थों में से प्रत्येक पदार्थ स्व और पर, नित्य और अनित्य, काल, नियति, स्वभाव, ईश्वर और आत्मा की अपेक्षा से है । इसका अभिप्राय यह है कि: ( १ ) जीव स्वतः नित्य है, काल से । ( २ ) जीव स्वतः अनित्य है, काल से । (३) जीव परतः नित्य है, काल से । (४) जीव परतः अनित्य है, काल से । इस तरह जीव के काल की अपेक्षा से ४ भेद हुए । इसी तरह नियति की अपेक्षा से चार भेद, स्वभाव की अपेक्षा से ४ भेद, ईश्वर की अपेक्षा से चार भेद और आत्मा की अपेक्षा से चार भेद । यो सब मिलकर जीव के २० भेद हुए । इस तरह अजीव के २०, पुराय के २०. पाप के २०, श्राश्रव के २०, संवर के २०. निर्जरा के २०, बन्ध के २० और मोक्ष के २० कुल १८० भेद अस्तित्व प्रतिपादक क्रियावादियों के हैं । कालवादियों के उपर्युक्त जीव के चार विकल्पों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है । जीव स्वरूप की अपेक्षा से है, पर पदार्थ की अपेक्षा से नहीं । अर्थात् जीव जीवत्व रूप से है । घट पटादि रूप से नहीं। वह नित्य है, क्षणिक नहीं क्योंकि वह पूर्व और उत्तर काल में भी बना रहता है । 'काल की अपेक्षा से इसका आशय यह है कि काल ही संसार के सब कार्यों का कारण है । वही संसार की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय का कारण है। समय से ही सब कार्य होते हैं । लाख प्रयत्न करने पर भी समय पकने के पहले कोई कार्य नहीं हो सकता । लता, वृक्ष आदि के फूल-फल भी नियत समय पर ही आते हैं अतः काल ही संसार के समस्त कार्यों का एक मात्र कारण है । इसके आधार से ही शीत, उष्ण, वर्षा, नवीन, प्राचीन आदि की व्यवस्था होती है । कहा भी है: For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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