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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २० ] www.kobatirth.org कालः पचति भूतानि कालः संहरते प्रजाः । कालः सुप्तेषु जागर्त्ति, कालो हि दुरतिक्रमः ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir काल ही भूतों को पकाता है, वही संहार करता है, वही सोते हुए को जगाता है । सब कार्य काल से ही होते हैं। काल का उल्लंघन नहीं हो सकता । [ आचाराङ्ग-सूत्रम् द्वितीय विकल्प में जीव को अनित्य माना गया है। शेष सब बातें प्रथम विकल्प की तरह ही समझनी चाहिए। तीसरे विकल्प में जीव का अस्तित्व परतः समझना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि आत्मा से भिन्न जो स्तम्भ, कुम्भ आदि पदार्थ हैं, उन्हें देखकर उनसे भिन्न वस्तु में आत्मा का ज्ञान होना परतः कहलाता है । घट को जानने के लिए घट से भिन्न पट आदि पदार्थों की व्यावृत्ति का ज्ञान आवश्यक है। इस तरह अन्य पदार्थों की व्यावृत्ति का ज्ञान होने के पश्चात् उस पदार्थ का निश्चय करना परतः कहलाता है। अनात्म ( जड़ ) वस्तुओं की व्यावृत्ति के पश्चात् होने वाला आत्मा के अस्तित्व का ज्ञान 'परत:' है : जैसे ह्रस्वत्व और दीर्घत्व परस्पर सापेक्ष हैं इसी तरह स्वरूप ज्ञान और पररूप का ज्ञान भी सापेक्ष हैं। चतुर्थ विकल्प भी इसी तरह समझना चाहिए । यह कालवादियों के जीव की अपेक्षा ४ मेद और नवपदार्थों की अपेक्षा से ३६ भेद हुए । नियतिवादी नियति से ही आत्मस्वरूप का निश्चय करते हैं। उनके मत से संसार के सब कार्यों का कारण एक मात्र नियति ही है । " पदार्थानामवश्यतया यद्यथाभवने प्रयोजक कर्त्री नियतिः” अर्थात् जो होने वाला होता है वह होकर ही रहता है और जो नहीं होने वाला होता है वह कभी नहीं हो सकता । यह होनहारता ही नियति है । कहा हैः प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण योऽर्थः सोऽवश्यं भवति नृर्णा शभोऽशुभो वा । भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ने नाभव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः ॥ अर्थात- होनहारता के कारण जो शुभ या अशुभ पदार्थ प्राप्त होने वाला होता है वह मनुष्यों को अवश्य प्राप्त होकर ही रहता है । प्राणियों के महान् प्रयास करने पर भी जो नहीं होने वाला होता है वह कदापि नहीं होता और जो होने वाला होता है उसका कभी नाश नहीं होता है । समान परिश्रम होने पर भी फल की विचित्रता होना नियति की प्रमुखता सिद्ध करता है । यह मस्करि परिब्राजक के मतानुसारियों की मान्यता है । जीव है, वह नित्य है, स्वतः है नियति की अपेक्षा इत्यादि ३६ भेद पूर्ववत् समझने चाहिए । इसी तरह स्वभाववादियों के भी ३६ भेद समझने चाहिए। वे स्वाभाव से ही आत्मा का अस्तित्व स्वीकार करते हैं । वे स्वभाव को ही सब कार्यों का कारण मानते हैं । वे कहते हैं: कः कण्टकानां प्रकरोति तैक्षण्यं, विचित्रभावं मृगपक्षिणाञ्च । स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं न कामचारोऽस्ति कुतः प्रयत्नः ॥ For Private And Personal केनाजितानि नयनानि मृगाङ्गनानां ? कोऽलंकरोति रुचिराङ्गरुहान् मयूरान् ? कश्चोत्पलेषु दलसन्निचयं करोति ? को वा दधाति विनयं कुलजेषु पुंस्सु ? ॥
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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