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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १८] [ आचाराङ्ग-सूत्रम् जाकर रह सकता है इसी तरह यह आत्मा भी एक शरीर में थोडे काल तक रह कर फिर दूसरे शरीर में श्रा - जा सकती है। विश्व में पाया जाने वाला वैषम्य भी पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को सिद्ध करता है। इस जगत् में कोई प्रकाण्ड पण्डित है तो कोई मूर्ख - शिरोमणि; कोई अपार ऐश्वर्य का स्वामी है तो कोई दर-दर का भिखारी, कोई राजा है और कोई रंक, कोई रूप का भण्डार है तो कोई कुरूप है, कोई सुन्दर स्वास्थ्य का आनन्द उठाता है तो कोई रोगों का घर बना हुआ है । कोई ऊँचे ऊँचे प्रासादों में विलासमय अठखेलियों में मशगूल है और किसी को फूस की टपरिया भी मयस्सर नहीं, किसी के यहाँ धन-धान्य के अखूट भण्डार भरे हैं और किसी को खाने के लिए दाना भी नहीं मिलता | दुनिया का यह वैषम्य क्यों है ? इसका कारण क्या बिना कारण के कोई कार्य नहीं होता अतः इसका कारण अवश्य होना चाहिए। इसका कारण है पूर्वकृत पुण्य और पाप । संसार में ऐसा भी देखा जाता है कि एक व्यक्ति बहुत धर्मात्मा और पुण्यात्मा होते हुए भी दुखी है और दूसरी ओर एक व्यक्ति पापकर्म करता हुआ भी सुखी है । धर्म और पुण्य का फल दुख नहीं हो सकता और पाप का फल सुख नहीं हो सकता । अतः यह सहज सिद्ध होता है कि वह धर्मात्मा प्राणी इस जन्म में धर्म करते हुए भी पहले के जन्म में किये हुए पापकर्म के कारण इस समय दुखी है और वह पापात्मा इस जन्म में पाप करते हुए भी पहले के जन्म में किये हुए धर्म और पुण्य के कारण सुखी है । यह भी पूर्व जन्म और पुनर्जन्म का प्रमाण है । गर्भस्थ प्राणी को सुख-दुख होना भी पूर्व जन्म को सिद्ध करता है । क्योंकि गर्भ में तो उसने कोई पापकर्म या पुण्यकर्म नहीं किया तो उसके सुख-दुख का कारण क्या हो सकता है ? माता-पिता उसके सुख-दुख के कारण नहीं हो सकते क्योंकि माता-पिता के किये हुए कार्यों का फल उसको भोगना पड़े यह तो हो नहीं सकता । अन्य के किये हुए कर्मों का फल अन्य किसी को मिले यह हो नहीं सकता। ऐसा होने पर तो सब व्यवस्था छिन्न भिन्न हो जावेगी । अतः उसके सुख-दुख का कारण उसके पूर्व जन्मकृत पुण्य-पाप है यह सिद्ध होता है । कई कई छोटे बालकों में असाधारण प्रतिभा और विलक्षणता पाई जाती है। डाक्टर यंग दो वर्ष की अवस्था में अस्खलित रूप से पुस्तक पढ़ लेते थे। इससे यह सिद्ध होता है कि यह असाधारणता उनके पूर्वजन्म के संस्कारों का परिणाम है। उक्त प्रमाणों से यह सिद्ध हो जाता है कि आत्मा भवान्तर में गमनागमन करने वाली है । वह एक शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर धारण करती है । कभी वह देव बनती है, कभी मनुष्य बन जाती है, कभी तिर्यञ्च में चली जाती है और कभी नरक के दुखों का अनुभव करती है । "अत्थि मे आया उववाइए" इसके द्वारा सूत्रकार ने क्रियावादियों का सूचन किया है और "नत्थि मे श्राया उववाइए" के द्वारा अक्रियावादियों का निर्देश किया है। अज्ञानिक और वैनयिकों का भी इनमें ही समावेश हो जाता है । क्रियावादी आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं परन्तु उनमें से कोई आत्मा को सर्वव्यापी, कोई नित्य, कोई अनित्य, कोई मूर्त, कोई अमूर्त, कोई श्यामक For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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