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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir षष्ठ अध्ययन तृतीयोदेशक ] [४६७ वस्त्रादि को । निमोसइत्ता त्याग कर । जे अचेले जो अचेल । परिवुसिए रहता है । तस्स= उस । भिक्खुस्स भिक्षु को। नो एवं भवइ=ऐसी चिन्ता नहीं होती है। मे वत्थे मेरा वस्त्र । परिजुएणे जीर्ण हो गया है। वत्थं जाइस्सामि=मैं वस्त्र की याचना करूँगा। सुत्तं डोरा। जाइस्सामि मांगूंगा । सूई जाइस्सामि=सूई की याचना करूँगा। संधिस्सामि साँचूँगा । सीविस्सामि वस्त्र सीऊँगा। उक्कसिस्सामि दूसरा वस्त्र जोगा। वुक्कसिस्सामि जीर्ण वस्त्र निकाल कर कम करूंगा। परिहिस्सामि वस्त्र पहिनँगा । पाउणिस्सामि वस्त्र से शरीर ढाँऊँगा । अदुवा= अथवा । तत्थ संयम में । परिक्कमंतं पराक्रम करते हुए । अचेलं वस्त्ररहित साधक को। भुञ्जो पुनः । तणफासा-तृणस्पर्श के दुख । फुसन्ति-आते हैं। सीयफासा फुसन्ति ठंड के दुख आते हैं । तेउफासा फुसन्ति आतप-गर्मी के दुख स्पर्श करते हैं। दंसमसगफासा फुसन्ति–डाँस मच्छर के दुख आते हैं । एगयरे-तृणस्पर्श दंसमशकादि अविरूद्ध । अन्नयरे शीतोष्णादि विरोधी परीपहों में से कोई एक । विरूवरूवे विविध प्रकार के । फासे दुख । अचेले वस्त्ररहित साधक । लाघवं-कर्मों की लघुता को। आगममाणे-समझ कर । अहियासेइ सहन करता है । से= उसको । तवे तप । अभिसमन्नागए प्राप्त । भवइ होता है । भावार्थ-शुद्धधर्म का आचरण करने वाला और प्राचार का पालन करने वाला मुनि धर्मोपकरण के सिवाय सब उपाधि का त्याग करता है । जो मुनि अल्प वस्त्र रखता है अथवा सर्वथा वस्त्ररहित रहता है उसे इस प्रकार की चिन्ता नहीं होती कि यह वस्त्र जीर्ण हो गया है अब नया वस्त्र लाना है, वस्त्र को सीने के लिए डोरा लाऊँगा, सूई लाऊँगा वस्त्र सांधूंगा, सीऊँगा, दूसरा वस्त्र जोडूंगा, इसको कम करूगा, इसे पहिनूंगा अथवा इससे शरीर ढांकूगा । इस प्रकार वस्त्ररहित बने हुए मुनि को कभी तृणस्पर्श के दुख प्राप्त होते हैं, कभी शीत के कभी आतप के, कभी डांस मच्छर के इत्यादि विविध प्रतिकूल परीषह आते हैं उनको वह वस्त्ररहित मुनि कर्म-भार से लधुभूत होना मानकर सहन करता है इस प्रकार उसको तप की प्राप्ति होती है ( वह तपस्वी कहा जाता है)। विवेचन-सूत्रकार इस सूत्र में अचेलकता के उपलक्षण से साधक के लिए धर्मोपकरण के अतिरिक्त सब पदार्थों का त्याग करना आवश्यक है यह प्रतिपादित करते हैं। सु-आख्यात धर्म का पालन करने वाला व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं को अत्यन्त कम करता है। वह अति आवश्यक पदार्थोंजिनके बिना काम न चल सकता हो-के सिवाय किसी भी चीज का उपयोग नहीं करता है। वह किसी प्रकार कावस्तु-संग्रह नहीं कर सकता है । जिसने कर्म के अविचल नियम को समझा है वह संग्रह को अनावश्यक मानता है । उसको किसी भी वस्तु का संग्रह करने की आवश्यकता नहीं रहती। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जिसने अपनी आवश्यकताएँ कम की हैं उसने ही धर्म को समझा है । धर्म किसी विशेष स्थान या समय के लिए ही नहीं है लेकिन उसका सम्बन्ध जीवनव्यापी है। जीवन की प्रत्येक क्रिया धर्ममय ही होनी चाहिए । धर्मात्मा की आवश्यकताएँ सचमुच आवश्यकताएँ ही हैं। वह आवश्यकताएँ For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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