SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 497
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir धूत नाम षष्ठ अध्ययन - तृतीयोदेशकः धूत अध्ययन के पूर्व के दो उद्देशकों में पूर्वग्रहों का परिहार और कर्म का धुनन तथा थाज्ञा के प्रति स्वार्पणता का वर्णन करने के बाद अब सूत्रकार तृतीय उद्देशक में देह-दसन की आवश्यकता बताते हैं । कर्म धुनन के लिए शरीर धुनन और उपकरण की अल्पता की अनिवार्यता होती है । वृत्तियों को वश में करने के लिए शारीरिक तप की कम महत्ता नहीं है । शारीरिक तपश्चर्या आध्यात्मिक उन्नति में महत्त्व पूर्ण स्थान रखती है। शारीरिक तप का उद्देश्य विषयों पर विजय प्राप्त करना है। इस उद्देश्य से जो देह का दमन किया जाता है वह संयम का पोषण करता है और कर्मदलिकों के पुञ्ज को भरम करता है । अतएव सूत्रकार साधक के लिए देहदमन करने का विधान करते हुए कहते हैं: " एयं खमुणी श्रयाणं सया सुयक्खायधम्मे विहृयकप्पे निज्झोसइत्ता, जे परिवुसिए तस्सगं भिक्खुस्स नो एवं भवइ - परिजु मे वत्थे वत्थं जाइस्सामि सुतं जाइस्सामि सई जाइस्सामि, संधिस्तामि सीविस्सामि उक्कसरसामि वुक सिस्सामि परिहिस्सामि पाउणिस्सामि अदुवा तत्थ परिकमंतं भुज्जो अचेलं तणफासा फुसंति, सीयफासा फुसंति, ते फासा फुसंति, दंसमसगफासा फुसंति, एगयरे अन्नयरे विरूवरूवे फासे अहियासेइ, अचेले लाघवं प्रागममाणे, तवे से अभिसमन्नागए भवइ । संस्कृतच्छाया – एतत् मुनिः आदानं सदा स्वाख्यातधर्मा विधूतकल्पः निझषयित्वा योऽचलः पर्युषितः तस्य भिक्षोः नैतद् भवति - परिजीर्ण मे वस्त्रं वस्त्रं याचिष्ये, सूत्रं याचिष्ये, सूची याचिष्ये, सन्धास्यामि, सोविष्यामि, उत्कर्षयिष्यामि व्युत्कर्षयिष्यामि, परिघास्यामि, प्रावरिष्यामि, अथवा तत्र पराक्रममां भूयः अचेलं तृणस्पर्शाः स्पृशन्ति, शतिस्पर्शाः स्पृशन्ति, तेजः स्पर्शाः स्पृशन्ति, दंशमशकरपर्शाः स्पृशन्ति, एकतरान् अन्यंतरान् विरूपरूपस्पशीन घिसहते, अचेल ः लाघवं सदा श्रागमयन् तपः तस्य अभिसमन्वागतं भवति । शब्दार्थ — सुक्खाय धम्मे - पवित्रता से धर्म का पालन करने वाला | विह्नयकप्पे = श्राचार का अनुष्ठान करने वाला । मुणी = मुनि । एयं प्रयाणं - इस प्रकार कर्म के उपादान For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy