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षष्ठ अध्ययन द्वितीयोद्देशक ]
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उपयोग करते हैं । जहाँ उपयोग की भावना है उपभोग की नहीं वहाँ "यह चीज अच्छी है या यह चीज़ बुरी है" यह बात उत्पन्न नहीं हो सकती । जैसा भी अाहार प्राप्त हो चाहे वह सुन्दर हो या असुन्दर वह साधक रागद्वेषरहित उसका उपयोग करे । इसी तरह एकचर्या में जंगल में रहते हुए भयंकर शब्द सुनाई पड़े--राक्षसों के अट्टहास सुनाई पड़े या सिंहादि के उपसर्ग हों तो वह साधक धैर्य से उन्हें सहन करता है। वह विचलित नहीं होता है । इस प्रकार इस उद्देशक में पूर्वाध्यालों का परिहार और आज्ञा की आरा. धना का कथन किया गया है।
-उपसंहारसंयम की दृढ़ता के लिए पूर्वाध्यासों का त्याग अनिवार्य है। नियमों की वाड द्वारा संयम रूपी क्षेत्र की रक्षा करनी चाहिए । एकान्तभावना, उपयोगमय जीवन, वैराग्यभावना, वृत्ति की अचेलकता
और मुण्डन इन चार उपायों से साधना में दृढ़ रहना चाहिए । स्वापरण का मार्ग कल्याण का सरल मार्ग है । मानत्याग के बिना आज्ञा की आराधना शक्य नहीं है।
ज्ञानी पुरुषों के वचनों को समझ कर मन, वचन और व्यवहार को तदनुकूल बनाने में ही बीतराग की आज्ञा का आराधन है।
इति द्वितीयोद्देशकः
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