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षष्ठ अध्ययन प्रथमोद्देशक ]
पहुंचता है ऐसी कोई भी प्रवृत्ति न करो । संसार के अज्ञानी प्राणी तो दुख के निदान को नहीं समझते हैं इसलिए दुख के निवारण के उपाय करते हुए नवीन दुख खड़े कर लेते हैं। वे यह नहीं समझते हैं कि रोग, दुख ये बाहर से नहीं आते वरन इसका कारण मैं स्वयं ही हूँ। हे साधको ! तुम इसको विचारो और अन्तयुद्ध करो। बाहर से जो वैरी दिखाई देते हैं वे वस्तुतः वैरी नहीं है । जो बाहर से दिखने वाले वैरियों को मारता है वह अपने आप को मारता है। वैर का शमन वैर से नहीं होता है। वैर का शमन प्रेम से होता है । सभी दुखों से छूटने का उपाय विश्ववन्धुत्व है । यह भावना जब बढ़ती है-फलती-फूलती है तो साधक फूल के समान लघु, सुकोमल, सुगन्धमय और आकर्षित बन जाता है। यह सब तभी शक्य है जब भोगों की आसक्ति-शरीर की आसक्ति दूर हो और आत्मदर्शन करने की उमङ्ग जागृत हो । मुनि साधक शरीर एवं विषयों में आसक्ति नहीं रखते हैं श्रतएव वे कर्म से रहित होकर शाश्वत सुख प्राप्त करते हैं।
श्रायाण भो सुस्सूस ! भो धूयवायं पवेयइस्सामि-इह खलु अत्तताए तेहिं तेहिं कुलेहिं अभिसेएण अभिसंभूया, अभिसंजाया,अभिनिव्वुडा अभिसं- वुड्डा अभिसंबुद्धा अभिनिकता अणुपुव्वेण महामुणी। - संस्कृतच्छाया-आजानीहि भोः शुश्रूषस्व ! भोः धूतवादं प्रवेदयिष्यामि-इह खलु आत्मतया
तेषु तेषु कुलेषु अभिषेकेणाभिसंभूताः, अभिसंजाता, अभिनिवृत्ताः, अभिसंवृद्धा, अभिसम्बुद्धाः अभिनिष्क्रान्ता अनुपूर्वेण महामुनिः ।
शब्दार्थ-भो हे शिष्य ! सुस्मुस-सुनो । आयाण-समझो । भो=हे शिष्य ! धूयवाद-कर्म से रहित होने का उपाय । पवेयइस्सामि=मैं तुम्हे कहूँगा । इह खलु इस संसार में । अत्तत्ताए-स्वकृत कर्म की परिणति से । तेहिं तेहिं कुलेहि-उन उन कुलों में । अभिसेएण-शुक्र रज के संयोग से । अभिसंभूया गर्भ में उत्पन्न हुए । अभिसंजाया गर्भ में वृद्धि को प्राप्त हुए । अभिनिव्वुडा=शरीर के अवयवादि बन चुकने पर उत्पन्न हुए । अभिसंवुड्ढा वृद्धि को प्राप्त कर यड़े हुए । अभिसम्बुद्धा=धर्मकथादि श्रवण से जागृत हुए । अभिनिता त्यागमार्ग में प्रवजित हुए । थणुपुव्वेण=क्रमशः । महामुणी महामुनि हुए।
भावार्थ हे शिष्य ! ध्यान पूर्वक सुनो और समझो । मैं तुम्हें कर्मों का क्षय करने का उपाय बताता हूँ-इस संसार में कतिपय जीव अपने किये हुए कर्मों का फल भोगने के लिए भिन्न-भिन्न कुलों में माता-पिता के रज-वीर्य से गर्भरूप में उत्पन्न हुए, वृद्धि को प्राप्त हुए जन्म-धारण किया, क्रमशः परिपक्ष वय के बने और प्रतिबोध पाकर त्यागमार्ग अंगीकार करके अनुक्रम से महामुनि बने ।
विवेचन-शिष्य गुरुदेव से प्रश्न करता है कि हे गुरुदेव आपने चित्तशुद्धि के छानेक उपायों का वर्णन किया है परन्तु सबसे सरल और सर्वोत्तम उपाय क्या है सो कृपा करके समझाइये । यह सुनकर गुरुदेव बोले कि हे शिष्य ! मैं तुझे कर्मों के निवारण का उपाय बताता हूँ सो ध्यानपूर्वक सुन और
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