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________________ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [प्राचाराग-सूत्रम् "जीवो जीवस्य भक्षकः" एक जीव दूसरे जीव को अपना भक्ष्य मानता है। इसी कारण से संसार में वैरभावना बढ़ती है । तिर्यश्च प्राणी अज्ञानता के कारण एक दूसरे को अपना भक्ष्य समझते हैं । अतएप चूहा और बिल्ली, सर्प और नकुल, सिंह और मृग श्रादि में जन्मजात वैर देखा जाता है। यह ध्यान रखना चाहिए कि इसका कारण अज्ञान ही है । वास्तविक दृष्टि से विचारा जाय तो जीव, जीव का भक्षक नहीं है लेकिन जीव जीव का रक्षक और सहायक हो सकता है। अपनी हिंसक-बुद्धि के कारण और अज्ञान के कारण प्राणी एक दूसरे को क्लेश पहुँचाता है इससे संसार में सर्वत्र भय व्याप्त हो रहा है। जो हिंसा करता है वह कदापि निर्भय नहीं रह सकता। अहिंसक ही निर्भय है और साथ ही जो निर्भय है वही अहिंसक हो सकता है । यह खूब विचारणीय है। मनुष्य प्राणी अपनी बुद्धि और अपनी विशिष्ट शरीर-रचना के कारण समी प्राणियों में अपना सबसे ऊँचा स्थान रखता है। वह अगर चाहे तो स्वयं निर्भय बन सकता है और दूसरों को भी निर्भय बना सकता है। लेकिन अगर मनुष्य के कार्य देखे जांय तो वे पशुओं की अपेक्षा अधिक भयंकर हैं। दुनिया को आज पशुओं का इतना भय नहीं है जितना मनुष्यों का भय है । हिंसक जन्तुओं ने जगत् को इतना भयावना नहीं बनाया जितना कि मनुष्य ने बनाया । यही कारण है कि आज मनुष्य निर्भय नहीं है और वह अपने आप भय का पुतला खड़ा करके उस पुतले से स्वयं डर कर शोर मचाता है। मनुष्य में हिंसावृत्ति आयी और वह पशुओं से भी ज्यादा हिंसक बना । जितनी हिंसावृत्ति बढ़ती है उतना ही भय बढ़ता है। इसी भय से प्राणी अपनी रक्षा के लिए, विशाल मकान, तलघर, शत्र, सेना आदि जमा करता है और इस तरह सुरक्षित बनना चाहता है लेकिन वह ज्यों-ज्यों रक्षा का प्रयत्न करता है त्यों-त्यों वह अधिक सशंकित बनता है, कायर और पामर बनता है। कायर और पामर बनकर वह विशेष पापप्रवृत्ति करता है। इसलिए सूत्रकार ने फरमाया है कि यह संसार अत्यधिक भय का स्थान बना हुआ है और संसार में फंसे हुए प्राणियों के दुखों की कोई सीमा नहीं है। इससे सूत्रकार यह सूचित करते हैं कि दुख दुष्कमों का परिणाम है । ज्यों-ज्यों दुष्कर्म बढ़ते हैं त्यों-त्यों दुख बढ़ता है। यह जानता हुआ भी प्राणी विषयों में आसक्त बना रहता है । यह कितनी मूढ़ता है। विषयभोगों का परिणाम इतना अनिष्ट होता है, इससे नरकादि स्थानों में जन्म लेना पड़ता है। यह जानकर भी प्राणी भोगों में अति आसक्ति के कारण अपने निस्सार और क्षणभङ्गुर शरीर को सब कुछ समझ लेता है। उसकी पुष्टि के लिए विविध जीवों को परिताप पहुंचाता है । वह यह नहीं सोचता कि जिस शरीर के लिए मैं अन्य को पीड़ा पहुंचाता हूँ वह शरीर तो लाख प्रयत्न करने पर भी नष्ट होने वाला ही है। वह स्वभावतः विनश्वर एवं क्षणभङ्गुर है । ऐसे विनश्वर देह को टिकाने के लिए अन्य चैतन्य सम्पन्न प्राणियों को परिताप पहुँचाना कितना भयंकर है ? आसक्ति के कारण और पूर्वकृत दुष्कर्मों के कारण जब शरीर में रोग उत्पन्न हो जाते हैं तब बह अत्यन्त आकुल-व्याकुल हो जाता है । वह इसे आकस्मिक विपत्ति समझता है लेकिन यह नहीं जानता कि यह तो मेरे ही बोये हुए बीज का परिणाम है। यह रोगरूपी वृक्ष मेरे ही बोये हुए बीज का फल है। यह नहीं जानकर यह एकदम घबरा जाता है और भान भूलकर उस बीमारी को दूर करने के लिए औषधियों और चिकित्साएँ करता है और इस प्रकार और कतिपय प्राणियों को पीड़ा देता है। ऐसा कार्य करने से भी वे पीड़ाएँ कम नहीं होती हैं। कर्मजन्य व्याधियों का उपचार सामान्य औषधियों से होना शक्य नहीं है । जब कर्म दूर हटेंगे तो ही व्याधियाँ जाएँगी। अन्यथा सैकड़ों औषधियों करने पर भी कर्मजन्य व्याधियाँ दूर नहीं हो सकतीं। सूत्रकार त्यागी साधकों को सूचित करते हैं कि हे साधको ! तुम ऐसी पापमय चिकित्सा के प्रपञ्च में न फंसो। जिससे अन्य प्राणियों को परिताप For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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