SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 479
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org ४४८] [प्राचाराङ्ग-सूत्रम् समझ । कर्मनिवारण करने का सबसे अच्छा उपाय त्यागमार्ग है। इस मार्ग पर चलकर अनेक व्यक्ति महामुनि हो गये और सर्वज्ञ-सर्वदृष्टा बन गये । सूत्रकार ने इस सूत्र में जीव की उत्पत्ति से लेकर महामुनित्व प्राप्ति तक का क्रम बताया है। यह जीव अपने किये हुए कमों का फल भोगने के लिए अनेक भिन्न भिन्न उच्च-नीच कुलों में उत्पन्न होता है। ऐसा जीव माता-पिता के रजवीर्य के संयोग से गर्भ में उत्पन्न होता है, वृद्धि को प्राप्त करता है और जन्मधारण करता है, परिपक्व वय का होता है, प्रतिबोध प्राप्त करता है, प्रव्रज्या अङ्गीकार करता है और महामुनि बन जाता है। __ सूत्रकार ने सूत्र में दो बार "भोः" शब्द का प्रयोग करके शिष्य को विशेष सावधान किया है। आशय यह है कि-"गुरु कहते हैं कि मैं तुझे महत्त्वपूर्ण बात सुनाता हूँ इसलिए तू उसे सावधानीपूर्वक सुन । सूत्र में आया हुआ 'अत्तताए' शब्द भी सहेतुक है । उसका अर्थ यह है कि यह जीव स्वकृत कर्म के फल का भोग करने के लिए उत्पन्न होता है। इस कथन से ईश्वर-कर्तृत्व का और भूतवादी चार्वाकों के मत का खण्डन किया गया है । ईश्वर कर्तृवादी यह मानते हैं कि प्राणियों को जन्म देने वाला और मारने वाला-सृष्टि रचने वाला और प्रलय करने वाला ईश्वर है लेकिन यह मान्यता ठीक नहीं है। सूत्रकार कहते हैं कि जीव स्वयं अपने कर्म से उत्पन्न होता है । कर्तृत्ववाद का पहिले खण्डन किया जा चुका है। इसी तरह भूतवादी चार्वाक यह मानते हैं कि "आत्मा नामक कोई तत्त्वन हीं है। पृथ्वी, जल, वायु, 'अमि और आकाश ये पांच भूत जब शरीर रूप में परिणमते हैं तब जीव उसमें पैदा हो जाता है और जब ये पांचों भूत बिखर जाते हैं तब जीव मर जाता है। मर जाने पर उसका अभाव हो जाता है । मरने पर दूसरी गति में जाता है और पुनर्जन्म होता है यह ठीक नहीं ।” चार्वाकों का यह कथन नितान्त भ्रमपूर्ण है । आत्मा का अस्तित्व और उसका भवान्तरगमन अन्यत्र सिद्ध कर दिया गया है। सूत्रकार कहते हैं कि अपने पूर्वकृत कमों का फल भोगने के लिए जीव जन्म धारण करता है। इससे पूर्वजन्म और पुनर्जन्म की सिद्धि होती है। सूत्रकार ने "अभिसंभूया,अभिसंजाया, अभिनिव्वुडा" पद दिए हैं। टीकाकार ने इसका खुलासा इस प्रकार किया है। गर्भ में जीव की स्थिति इस प्रकार होती है: सप्ताहं कललं विद्यात्ततः सप्ताहमर्बुदम् । अर्बुदाज्जायते पेशी पेशीतोऽपि घनं भवेत् ॥ अर्थात्-माता-पिता का संयुक्त रज-वीर्य जब गर्भरूप में परिणमता है तब सात दिन तक वह कललरूप होता है । बाद के सात दिन तक अर्बुदरूप रहता है। अर्बुद से पेशी होती है और पेशी से घन होता है। (कलल, अर्बुद, पेशी आदि तरलता की तरतम अवस्था हैं ) जहाँ तक गर्भस्थ जीव कललरूप होता है वहाँ तक अभिसंभूत, पेशीरूप तक अभिसंजात और हाथ-पांव आदि अवयव बनने पर अभिनिवृत्त कहलाता है। इस समग्र सूत्र का प्राशय यह है कि त्यागमार्ग ही कर्मों से मुक्त होने का सर्वोत्तम उपाय है। त्याग से जीव फूल के समान लघुभूत हो जाता है। त्याग से जीव कर्मों का त्याग कर देता है । त्याग समझपूर्वक होना चाहिए यह बताने के लिए सूत्रकार ने “अभिसंबुद्धा" कहने के बाद "अभिनिक्कता" For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy