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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir षष्ठ अध्ययन प्रथमोद्देशक ] [४४३: उनके किए हुए अति भयंकर दुष्कर्म ही उन्हें यह यातनाएँ देते हैं । यह जानकर दुष्कर्मों से निवृत्त होना चाहिए। अगर हम यह चाहते हैं कि ऐसी दुखमय स्थिति को हम प्राप्त न हों तो ऐसे दुष्कमों से बचकर रहना चाहिए। नारकी जीव ऐसी दुखमय स्थिति में मरना पसन्द करते हैं लेकिन वे वहाँ अपनी स्थिति को पूर्ण करने के पहिले मर भी नहीं सकते हैं । वहाँ की उत्कृष्ट स्थिति तैतीस सागरोपम की है। जिस नारकी जीव की जितनी स्थिति है उसे उतने समय तक वह दुखद अवस्था भोगनी ही पड़ती है । नरक गति में चार लाख जीवयोनि है और पञ्चीस लाख कुलकोटि ( कुलकोड़ी ) हैं। इसी प्रकार तिर्यश्चगति में भूख, प्यास, शीत, पातप, परतंत्रता आदि भयंकर वेदनाएँ हैं। वहाँ भी सुख का लेशमात्र भी नहीं है। कहा भी है: जुत्तव्हिमात्युग्णभयार्दिताना, पराभियोगव्यसनातुराणां । अहो तिरश्वामति दुःखितानां सुखानुषङ्गः किल वार्तमेतत् ।। अर्थात्-तिर्यञ्चगति के जीव, भूख, प्यास, शीत, गर्मी, भय आदि से पीड़ित हैं, सदा परवश रहने से विभिन्न दुख से दुखी हैं। ऐसे तिर्यश्चगति के जीवों को सुख तो लेशमात्र भी नहीं है। तिर्यश्चगति में पृथ्वीकाय की सात लाख योनियाँ हैं और बारह लाख कुलकोटि हैं । अप्काय की सात लाख योनियाँ और सात लाख कुलकोटि हैं। अग्निकाय की सात लाख योनियों और तीन लाख कुलकोटि हैं। वायुकाय की सात लाख योनियों और सात लाख कुलकोड़ी हैं । प्रत्येक वनस्पतिकाय की दस लाख योनियाँ और साधारण वनस्पति काय की चौदह लाख योनियाँ हैं । दोनों प्रकार के वनस्पति काय की अट्ठावीस लाख कुल कोड़ी हैं। इस प्रकार पांच स्थावरों में यह जीव अनन्तकाल तक स्वपर-काय शस्त्रद्वारा छेदन भेदन आदि विभिन्न यातनाएँ सहन करता है । द्वीन्द्रिय जीवों की दो लाख योनियों और सात लाख कुलकोड़ी हैं । त्रीन्द्रिय जीवों की दो लाख योनियाँ और आठ लाख कुलकोडी हैं। चतुरिन्द्रिय जीवों की दो लाख योनियाँ और नव लाख कुलकोडी हैं । तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय की चार लाख योनियाँ हैं। इनमें जलचर की साढे बारह लाख, पक्षियों की बारह लाख, चौपदों की दस लाख, उरपरिसर्प की दस लाख, भुजपरिसर्प की नव लाख कुलकोडी हैं। इन विविध योनियों और कुलों में विविध यातनाएँ स्पष्ट ही हैं। इसी तरह मनुष्य गति में भी अनेक प्रकार के दुख हैं। गर्भ के दुख, जन्म के दुख, बाल्यकाल के दुख, युवावस्था के दुख और वृद्धावस्था के दुख अपरिमित हैं। आधि, व्याधि और उपाधियों का अन्त ही नहीं है । संसार में कोई मनुष्य सुखी नहीं है। किसी को धन के अभाव का दुस्ख, किसी को जन (परिवार) के अभाव का दुख है । कहीं पर धन है तो पुत्रादि परिवार के अभाव से वह संतप्त है । कहीं पुत्रादि का परिवार है तो धन का अभाव है। किसी के धन-जन भी हैं तो तन्दुरुस्त तन का अभाव है। संसार में सभी तरह के सुख कहीं नहीं हैं अतएव वहाँ भी मनुष्य दुख से संतप्त रहता है। कहा है: दुःखं स्रीकुतिमध्ये प्रथममिहभवे गर्भवासे नराणां, घालत्वे चापि दुःखं मललुलिततनुस्त्रीपयःपानामिश्रम् । तारुण्ये चापि दुःखं भवति विरहजं वृद्धभावोप्यसारः, संसारे रे मनुष्या! वदत यदि सुखं स्वल्पमप्यस्ति किञ्चित् ।। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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