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[ आचाराङ्ग-सूत्रम्
अर्थात् मनुष्य भव में जन्म लेने पर पहिले स्त्री के गर्भाशय में रहना पड़ता है, जन्म होने पर बचपन में मलमूत्र से शरीर भरा रहता है, पीने के लिए केवल मां का दूध ही है। युवावस्था में स्त्री पुत्र माता पिता आदि के वियोग का दुख होता है । वृद्धावस्था तो असार है ही । हे मनुष्यो ! अगर संसार में अल्पमात्र भी सुख हो तो बोलो । मनुष्य भव में पुण्य फलरूप थोड़ा-बहुत प्रतिभास रूप सुख है वह भी त्याज्य है क्योंकि वह दुखमिश्रित है। जिस प्रकार दूध के कटोरे में थोड़ा-सा विष मिला हुआ हो तो वह दूध भी अपेय हो जाता है इसी तरह संसार का स्वल्प सुख दुखमिश्रित है अतएव वह सुख भी त्याज्य है । मनुष्य की चौदह लाख जीवयोनि और बाहर लाख कुलकोडी हैं ।
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सामान्य मनुष्य यह समझता है कि देवलोक में तो सुख ही सुख है। वहाँ दुख का क्या काम ? लेकिन यह बात ठीक नहीं । देवताओं को यद्यपि भूख, प्यास, धन और शारीरिक रोग और वृद्धावस्था का दुख नहीं है तदपि वहाँ ईर्षा, द्वेष, मसर और च्यवन आदि के दुख विद्यमान हैं। देवता, दूसरे अधिक ऋद्धि वाले देवता को देखकर ईर्षा करता है और इससे उसे संताप होता है । अपना च्यवनकाल मालूम होने पर उसे बहुत दुख होता है। देवगति में चार लाख योनियाँ और छब्बीस लाख कुल कोड़ी हैं ।
इस प्रकार चतुर्गति रूप संसार में पड़े हुए जीव विविध प्रकार के कुलों एवं योनियों में अपने किए हुए दुष्कर्मों का फल भोगते हैं । प्राणी विवेकरूपी चक्षु से रहित होकर अन्ध बने हुए नरकादि अन्धकारमय स्थानों में जाते हैं । मिध्यात्व अविरति, प्रमाद, कषाय आदि भाव अन्धकार में भटकते हुए प्राणी विभिन्न दुखों का अनुभव करते हैं। यह जिनेश्वर देवों ने फरमाया है।
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इस विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि जीव के दुख उसके ही किए हुए कर्मों के परिणाम हैं । आगमों में कर्म के मुख्य तीन विभाग किए गये हैं: - ( १ ) संचित ( २ ) प्रारब्ध और ( ३ ) क्रियमाण । जो कर्म एकत्रित कर लिए गये हैं लेकिन अभी उदय में आने योग्य न हों वे संचित कर्म कहलाते हैं । जो उदय में आने वाले कर्म हैं वे प्रारब्ध कहलाते हैं- जिन्हें हम भावी कहते हैं। जो कर्म वर्तमान में किये जा रहे हैं वे क्रियमाण कहलाते हैं । क्रियमाण कर्म ही संचित और प्रारब्ध रूप में परिणत होते हैं। अतएव अपने वर्त्तमान कार्यों पर पूरा लक्ष्य देना चाहिए। तथा भूतकाल के किए हुए कर्मों के फल को समभाव से. सहन करने की सहिष्णुता प्रकट करनी चाहिए। ये दो साधन हैं जिनके द्वारा कर्मों से लड़ा जा सकता. है । जो व्यक्ति भूल करके उसका परिणाम भोगते समय रोता है- विलाप करता है वह भूल को दूर करने के बदले और दूसरी भूल करता है। तात्पर्य यह है कि भूतकाल के कर्मों के फल को शान्ति से सहन करना और वर्तमान के कार्यों पर पूरी सावधानी रखना चाहिए। इससे कर्म के दुखद परिणामों से बचा जा सकता है।
संति पाणा वासगा, रसगा, उदए, उदएचरा, यागासगामिणो पाणा पाणे किलेसंति, पास लोए महम्भयं बहुदुक्खा हु जन्तवो, सत्ता कामेसु मावा, बले वहं गच्छन्ति सरीरेण पभंगुरेणं, अट्टे से बहुदुक्खे इह वाले पकुव्वाइ, एए रोगा बहू नच्चा बाउरा परियावए नालं पास, प्रलं तवेहिं, एयं पास मुणी ! मह भयं नाइवाइज्ज कंचणं ।
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