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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [आचाराग-सूत्रम् नरकादि स्थानों में अति दारुण वेदनाएँ भोगता है। अतएव कर्मविपाक को जानकर उससे मुक्त होने का उपाय एवं प्रयत्न करना श्रेयस्कर है । - कोई भी कार्य कारण के बिना नहीं हो सकता। छोटे से छोटा कार्य भी कारणों की अपेक्षा रखता है । चतुर्गति रूप संसार कार्य का कारण कर्म ही है। कर्म के वैचित्र्य से ही जीव चारगति एवं चौरासी लाख जीवयोनि में जन्म-मरण करता है और विविध दुखों को भोगता है। नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव ये चार गतियाँ हैं । इन चारों गतियों में जीव विभिन्न कष्टों और यातनाओं का अनुभव करता है। नरक गति में जो दुख एवं यातनाएँ हैं वे अकथनीय हैं-शब्दों द्वारा उनका वर्णन नहीं हो सकता। तदपि उस महान् भयंकरता का आंशिक ज्ञान हो सके और उसे सुनकर प्राणी पापों से विरक्त हो इस हेतु से यत्किञ्चित् उसका वर्णन करते हैं । नरक में दो प्रकार की वेदनाएँ हैं-परमाधार्मिक देव द्वारा दी जाने वाली और दूसरी नारकी जीव परस्पर एक दूसरे को दुख देते हैं वह वेदना । वहाँ जो क्षेत्र-जन्य वेदना है उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। नारक के दुखों का अंशमात्र वर्णन नीचे के श्लोकों में किया है छिद्यन्ते कृपणाः कृतान्तपरशोस्तीक्ष्णेन धारासिना, क्रन्दन्तो विषवीचिभिः परिवृताः संभक्षणव्यापृतैः । पाट्यन्ते क्रकचेन दारुवदसिना प्रच्छिन्नबाहुद्वयाः, कुम्भीषु त्रपुपानदग्धतनवो मूषासु चान्तर्गताः ॥ अर्थात-वे नारकी जीव यमराज के कुठार के समान तीक्ष्ण तलवार की धारा के द्वारा छेदे जाते हैं, विष से भरे हुए काटने के लिए व्यापार करते हुए कुत्तों के समान देवद्वारा दुख पाने से क्रन्दन करते हैं। जैसे करवत के द्वारा लकड़ी चीरी जाती है वैसे वे जीव चीरे जाते हैं, उनकी दोनों भुजाएँ काट दी जाती हैं । कुम्भियों में डालकर गरम गरम शीशा उन्हें पिलाया जाता है। जैसे सोनार सोने को मूष में डालकर पकाता है वैसे वे बेचारे कुम्भिवों में पकाये जाते हैं। भृज्ज्यन्ते ज्वलदम्बरीषहुतभुक्ज्वालाभिराराविणो, दप्तिाङ्गारनिभेषु वज्रभवनष्वङ्गारकेत्थिताः । दह्यन्ते विकृतोर्ध्वबाहुवदनाः क्रन्दन्त पार्तस्वनाः, पश्यन्तः कृपणा दिशो विशरणास्त्राणाय को नो भवेत् ॥ अर्थात्-वे बेचारे नारकी जीव जलते हुए अम्बरीष (भाइ) की अग्नि की ज्वाला में भुंजे जाते हैं जैसे भड़भजा चना भंजता है । वे नारकी जीव जलते हुए अंगारों के समान गर्म वन के भवनों में खड़े किये जाते हैं । वहाँ वे हाथ और मुँह को ऊँचा करके करुण आवाज से रोते हुए जलते हैं। वे बेचारे नारकी जीव शरणरहित होकर इधर उधर अपने बचाने वाले को देखते हैं लेकिन उन्हें कोई इस वेदना से बचाने वाला नहीं है । उन्हें कोई शरण देने में समर्थ नहीं है। कर्मावरण से श्रावृत्त नारकी जीवों की वेदना का जरा सा हाल सुनते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं, शरीर थर्रा उठता है, अंग-अंग कांपने लगता है तो जो ऐसी वेदनाएँ भोगते हैं उनकी क्या दशा होगी? लेकिन साथ ही यह विचारना चाहिए कि इस अवस्था को उन्होंने अपने हाथों से ही उत्पन्न की है। उन्हें कोई दूसरा पीड़ा नहीं पहुंचाता है लेकिन For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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