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प्रथम ]
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भावार्थ - हे जम्बू ! इधर दृष्टि फेंक-इन भिन्न-भिन्न योनियों में और भिन्न २ कुलों में जीव अपने कर्मों का फल भोगने के लिए उत्पन्न होते हैं। ऐसे आसक्त जीवों को शारीरिक रोग उत्पन्न होते हैंकिसी को कंठमाला का रोग होता है, किसी को कोढ निकलती है, किसी को क्षय रोग होता है, किसी 'को अपस्मार (मृगी, मूर्छा ) होता है, किसी को आंख का रोग होता है, किसी को शरीर - जड़ता का रोग होता है, किसी के हाथ-पांव विकल होते हैं, किसी को कुबडापन का रोग, किसी को भस्मक (प्रतिक्षुधा ) रोग, किसी को कंप रोग तो किसी को पीठ झुक जाने का रोग होता है किसी के हाथ-पांव ऐसे कठोर हो जाते हैं कि वे संकुचित नहीं किए जा सकते, किसी को प्रमेह रोग इस प्रकार सोलह राजरोग होते हैं और इसके सिवाय अन्य भी शूल आदि पीड़ा और घाव आदि भयंकर दर्द होते हैं जिससे अन्त में मृत्यु भी हो जाती है। इसके सिवाय जहां रोग का नाम नहीं है ऐसे देव भी जन्म-मरण करते हैं । इसलिए कर्मविपाक को जानकर कर्मों को दूर करना चाहिए। और भी कर्मों का फल कहता हूँ सो सुनो-कर्मवशात् जीव - ज्ञानचक्षुरहित होकर घोर अंधकारमय ( नरकादि ) स्थानों में बार-बार जन्म लेते हैं और दारुण दुख का अनुभव करते हैं ऐसा अनुभवी पुरुषों ने कहा है ।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में दुख और कर्म का कार्यकारण भाव दिखाया गया है । न केवल दुख काही बल्कि समस्त सृष्टि का कारण कर्म है । दुनियाँ की इस नाट्यशाला में जो विविध दृश्य दिखाई देते हैं, जो विविध आकृतियाँ, विभिन्न साधन-सामग्री तथा विविध जीव योनियां दिखाई देती हैं इसका कारण कर्म ही है। ईश्वर को इसका कारण मानना युक्ति से परे है। जीव अपने कर्मों की पकड़ से ही • विभिन्न एकेन्द्रियादि योनियों में उत्पन्न होते हैं । जो कुछ होता है वह अपने कर्मों का ही फल है। श्राक"स्मिक कुछ नहीं होता है अतएव पूर्वकृत कर्मों का फल भोगते हुए रुदन करने की अपेक्षा अपने वर्त्तमान के "कार्यों पर सावधानी पूर्ण रखनी चाहिए। भावी शुद्धि अपने ही हाथों में हैं। यह लक्ष्य में रखकर वर्त्त - मान दशा पर रुदन करने की अपेक्षा भविष्य की शुद्धि के लिए वर्त्तमान में जागृत रहना अधिक उत्तम है।
सूत्रकार फरमाते हैं कि जो क्रिया वासना और पूर्वाध्यासों के वश में होकर की जाती है उसका फल प्रति भयंकर होता है। मानसिक वेदनाओं के अतिरिक्त शारीरिक वेदनाएँ भी ऐसी क्रियाओं के कर्त्ता को पीड़ित करती हैं। आसक्ति और भोग रोगरूप में परिणत होते हैं । भोग में रोग का सदा भय रहता ही है। जीव के दुष्कर्मों के कारण जीव के शरीर में सोलह प्रकार के महारोग उत्पन्न हो जाते हैं। सोलह रोगों के नाम इस प्रकार हैं: - (१) कंठमाला (२) कोढ़ ( ३ ) राजयक्ष्मा - क्षय ( ४ ) अपस्मार - मूर्छा, मृगी (५) नेत्ररोग ( ६ ) शरीर की जड़ता - इतना भारीपन कि चलने में भी तकलीफ हो ( ७ ) लूला लंगडा होना (८) कुब्ज - कुबड़ा होना ( ६ ) उदररोग - जलोदरादि (१०) मूक पन - ( ११ ) सोजन-शोथ (१२) भस्मक रोग (१३) कम्पन (१४) पीठ का झुक जाना (१५) श्लीपद - पांव का कठिन - संकोच न हो सके ऐसा हो जाना (१६) मधुमेह - प्रमेह | इनका विशेष स्वरूप वैद्यक ग्रन्थों से समझना चाहिए ।
उपर्युक्त सोलह रोगों के सिवाय भी शूलादिक प्राणघातक व्याधियाँ और शस्त्रादि के घाव और गिर पड़ने से होने वाले जख्म इत्यादि अनेक दुख समय-समय पर प्राणियों को पीड़ित करते हैं । विविध रोगों से ग्रसित होकर जीव भयंकर यातनाएँ पाता है और आखिर मृत्यु प्राप्त करता है। मरकर भी
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