SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 471
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra [प्राचाराङ्ग-सूत्रम् मूयं च सूणियं च गिलासणिं । वेवइं पीढसप्पिं च सिलिवयं महमेहणिं सोलस एए रोगा अक्खाया अणुपुव्वसो । अह णं फुसंति श्रायंका फासा य असमंजसा । मरणं तेसिं संपेहाए उव्वायं चवणं च नचा परियागंच संपेहाए तं सुणेह जहा तहा । संति पाणा अंधा तमंसि वियाहिया तमेव सइ असई अतिप्रच, उच्चावए फासे पडिसंवेएइ बुद्धहि एवं पवेइयं । संस्कृतच्छाया-अथ पश्य तेषु कुलेषु भात्मत्वाय जाता । गण्डी अथवा कुष्ठी, राजासी, अपस्मारः। भक्षिरोगः, जाड्यता, चेव कुणिः, कुब्जी, उदरीं च पश्य मूकं, च शूनत्वं भस्मकम् । वेपनं पीठसर्पित्वं रलीपदं मधुमेहिनं । षोडशाप्येते रोगा पाख्याता अनुपूर्वशः, अथ स्पृशंति आतङ्का स्पर्शाश्व असमञ्जसाः, मरणं तेषां सम्प्रेक्ष्योपपातं च्यवनं च ज्ञात्वा परिपाकं च सम्प्रेक्ष्य तं शुणुत यथा तथा सन्ति प्राणिनः अन्धा तमसि व्याख्याताः तामेव सकृद् असकृद् अतिगत्योचावचान् स्पर्शान् प्रतिसंवेदयति बुद्धरेतत् प्रवेदितम् । शब्दार्थ-अह-अथ । तेहिं कुलेहि-उन-उन भिन्न कुलों में। आयत्ताए अपने २ कर्मों का फल पाने के लिए । जाया जीव उत्पन्न होते हैं उन्हें तू । पाप-देख । गंडी गण्डमाला का रोगी । अदुवा अथवा। कोढी कुष्ठरोगी। रायंसी-राज्य क्षमा-क्षय रोगी। अवमारिय= अपस्मार मूर्छा मृगी आदि का रोगी। काणियं आँख से काणा या चतु रोगी। झिमियं= जड़ता का रोगी। चेव और । कुणियं-लूला, लँगड़ा । तहा=तथा । खुजियं-कुबड़ा। उदरि= पेट का रोगी । मूयं च और मूंक-गँगा । सूणीयं सोजन का रोग। गिलासणि भस्मक रोग अतिक्षुधा का रोग । वेवड्=कंपरोग। पीठसप्पि पीठ के झुक जाने का रोग। सिलिवयं पांव की कठोरता होना-संकोच न कर सकना । महुमेहिणि मधु मेह-प्रमेह का रोगी। अणुपुव्वसो= इस प्रकार । एए=ये । सोलस रोगा-सोलह रोग । अक्खाया कहे गये हैं। अह f=और भी। प्रायंका-शूलादिक व्याधियाँ । असमंजसा अनियमित । फासा गाढ प्रहारादि दुख । फुसंति= स्पर्श करते हैं । तेसिं-उनका । मरणं-मरण । संपेहाए देखकर । उव्वायं देवों का जन्म लेना। चवणं फिर से मरना । नच्चा जानकर । परियागं-कर्म के फल को । संपेहाए-देखकर कर्म के नाश में दृष्टि रखना चाहिए। सुणेह जहा तहा हे शिष्य ! यह भी सुन कि । पाणा प्राणी । अंधा ज्ञानचक्षु रहित होकर अन्ध के समान । तमंसि अन्धकार वाले नरकादि स्थानों में रहते हैं। वियाहिया यह कहा गया है। तामेव-वहाँ। सई-एक वार । असई-बार-बार । अतिअच्च जाकर । उच्चावए अतिदारूण । फासे दुखों का । पडिसंवेएइवेदन करते हैं। एयं-यह। बुद्धेहि= तीर्थङ्करों द्वारा । पवेइयं कहा गया है। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy