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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir मा अध्ययन, प्रथमोदेशक ] लिए उस पर पहिले लिखे हुए संसार सम्बन्धी अध्यास और दोषों को मिटाने की पूर्ण आवश्यकता है। ऐसा करने से ही संयम की स्पष्टतया आराधना हो सकती है । अतएव पूर्वाध्यासों के त्याग के लिए उपदेश फरमाते हुए सूत्रकार कहते हैं: अोबुज्झमाणे इह माणवेसु अाघाइ से नरे, जस्स इमानो जाइयो सव्वत्रो सुपडिलेहियाश्रो भवंति, अाघाइ से नाणमणेलिस, से किट्टइ तेसिं समुट्ठियाणं निक्खित्तदंडाणं समाहियाणं पन्नाणमंताएं इह मुत्तिमग्गं । एवं (अवि ) एगे महावीरा विप्परिकमंति, पासह एगे अवसीयमाणे अगत्तपन्ने । - संस्कृतच्छाया-अवबुध्यमानः इह मानवेषु आख्याति स नरः, यस्य इमाः जातयः सर्वतः सुप्रत्युपेक्षिता भवन्ति, आख्याति स ज्ञानमनीदृशम्, स कर्तियति तेषां समुत्थिताना, निक्षिप्तदण्डाना, समाहिताना, प्रज्ञानवता इह मुक्तिमार्गम् । एवमप्येके महावीरा विपराक्रमन्ते, पश्यत एकान् भवसीदतः अनात्मप्रज्ञान् । - शब्दार्थ-ओबुज्झमाणे संसार के समस्त पदार्थों को अपने केवलज्ञान द्वारा जानकर । से नरे वे नररत्न तीर्थङ्कर । इह माणवेसु–संसार के मनुष्यों को । आघाइ=धर्मोपदेश देते हैं । जस्स जिनको। इमाओ=ये। जाइओ एकेन्द्रियादि जातियाँ । सव्वो सभी तरह से । सुपडिलेहियाम्रो ज्ञात । भवंति होती हैं । से वह श्रुतकेवली आदि भी। अणेलिसं-अनुपम । नाणं-ज्ञान का। आघाइ-उपदेश करते हैं। से वह तीर्थङ्करादि । तेसिं-उन । समुट्ठियाणं-धर्म के लिए उत्साही बने हुए। निक्खित्तदंडाणं आरम्भ से निवृत्त हुए। समाहियाणं सावधान बने हुए । पन्नाणमंताण-समझदार साधकों को । इह इस मनुष्य लोक में । मुत्तिमग्गं मोक्ष का मार्ग । किट्टा बताते हैं। एवमवि=ऐसा होते हुए भी। एगे-कितनेक । महावीरा महावीर ही। विप्परिकमंति-संयम में पराक्रमी बनते हैं । एगे-कितनेक । अणत्तपन्ने आत्मभान से रहित होकर । अवसीयमाणे संयम-मार्ग पर लथड़ाते हुए-सीदाते हुए साधकों को । पासह देखो। भावार्थ-ज्ञानी पुरुष इस जगत् के मानवों में सच्चे नररत्न हैं वे यथार्थ तत्त्व को अपने केवलज्ञान द्वारा जानकर जनकल्याण के लिए उपदेश प्रदान करते हैं । इसी तरह एकेन्द्रियादि जातियों को (जन्म-मरण को ) भलीभांति जानने वाले केवली और श्रुतकेवली मी अनुपम बोध देते हैं । यद्यपि ज्ञानी "पुरुष, त्यागमार्ग में उत्साही बने हुए, हिंसक क्रियाओं से निवृत्त बने हुए बुद्धिमान् और सावधान सुपात्र साधकों को मुक्ति का मार्ग बताते हैं तो भी उनमें जो महावीर हैं वे ही उसे पचा कर पराक्रमी बनते हैं बाकी बेचारे बहुत से संयम स्वीकार करके भी आत्म-भान को भूलकर लथड़ाते हुए दृष्टिगोचर होते हैंयह तुम देखो। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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