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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [आचाराग-सूत्रम् विवेचन-इस सूत्र में तीर्थङ्कर और इतकेवली के यथार्थ धर्मोपदेश की सर्वोत्कृष्टता का निरूपण किया गया है। तीर्थक्कर स्वयं पहिले प्रबल पुरुषार्थ और दीर्घ तपश्चरण के द्वारा केवलज्ञान प्राप्त करते हैं और सम्पूर्ण जगत् का पूरा-पूरा अनुभव प्राप्त कर लेने के पश्चात् एकान्त जनकल्याण की भावना से प्रेरित होकर देशना का दान करते हैं। इससे यह सूचित किया गया है कि जो पूरा अनुभवी हो, आगमनिगम का वेत्ता हो वही उपदेश देने योग्य है । अपूर्ण और अल्प अनुभव वाला अगर उपदेश देने लगता है तो वह गलत मार्ग पर भी जनता को ले जा सकता है। इससे अहित की सम्भावना रहती है। तीर्थकर केवलज्ञान प्राप्त हो जाने के बाद ही देशना देते हैं इसमें यही श्राशय रहा हुआ है। सूत्रकार ने “माणवेसु” यह पद दिया है। यह उपलक्षण है । तीर्थंकर देव, मनुष्य और तिर्यञ्च की बारह प्रकार की पर्षदा के बीच समवसरण में विराजमान होकर उपदेश फरमाते हैं। फिर भी 'माणवेसु' यह पद दिया है इसका विशेष प्रयोजन है । वह यह है कि प्रायः मनुष्य ही देशना श्रवण कर चारित्र-मार्ग, अङ्गीकार कर सकते हैं अतएव मानव-योनि की महत्ता इससे ध्वनित की गई है। देशना श्रवण करके देव प्रत्याख्यान नहीं करते और तिर्यञ्च सर्वविरतित्व अङ्गीकार नहीं कर सकते हैं । रहे मनुष्य-वे ही मुख्यतया मनन करने वाले होने से धर्मोपदेश के योग्य है अतएव "माणेवसु" यह पद दिया गया है। इस सूत्र में दिया गया "नरे" शब्द भी सहेतुक है । तीर्थंकर अपने स्वाभाविक मानव-देह से ही उपदेश फरमाते हैं । वे मानव हैं और मानव होकर ही अपने प्रबल पुरुषार्थ से उन्होंने ईश्वरत्व और सर्वज्ञत्व प्राप्त किया है। यह इससे प्रकट होता है। उनको प्रारम्भ से ही काल्पनिक ईश्वर नहीं माना लिया गया है। दूसरी बात नरदेह से उनका उपदेश बिल्कुल सहज है। अन्य तीथिंकों में से शाक्य आदि ने भीत के अन्दर से भी धर्मकथा प्रकट होती है यह माना है। अर्थात्-भीत उपदेश करती है यह उनकी मान्यता है। अथवा औलूक्य मत वाले यह मानते हैं कि उलूक के रूप में उनके प्रवर्तक ने धर्मोपदेश दिया। ऐसी अस्वाभाविकता जैनदर्शन में नहीं है। तीर्थंकर देव ने अपने प्रबल पुरुषार्थ से पूर्णज्ञान और ठोस अनुभव प्राप्त किया । तदन्तर उन्होंने धर्मदेशना प्रदान की इसलिए उन्होंने संसार को अनमोल-अजोड़-अनुपम ज्ञान प्रदान किया है। उनका ज्ञानमय उपदेश रूढिगत मानस वाले व्यक्ति पचा भी नहीं सकते; उसमें नवीनता और अन्तःकरण को प्रेरणा करने की शक्ति है । तीर्थंकर जो कुछ कहते हैं उसमें जनकल्याण के सात्विक हेतु के सिवाय अन्य कोई हेतु नहीं होता । अतएव उनके उपदेशों को पचाने की और उसके अनुसार आचरण करने की शक्ति पैदा करनी चाहिए। तीर्थंकर देव के अतिरिक्त जिन्होंने विशिष्ट ज्ञान प्राप्त किया है, जो एकेन्द्रियादि जातियों के सम्यक् प्रकार से ज्ञाता हैं ऐसे श्रुतकेवली, अवधिज्ञानी, मनःपर्यायज्ञानी, जातिस्मरण ज्ञान वाले और आगम के पारगामी भी अनुपम रीति से दुनिया को ज्ञान देते हैं। यह ज्ञान आध्यात्मिक. कल्याण करने वाला है अतएव अनुपम और अजोड़ है। आगे चलकर सूत्रकार ने यह बताया है कि अनुभवी पुरुष किन्हें उपदेश देते हैं । जो व्यक्ति पात्र हैं उन्हें ही उपदेश देना हितकर होता है। अपात्र को उपदेश देना अहितकर होता देखा गया है। जो साधक द्रव्य और भाव से उत्थित हैं, धर्म के प्रति उमङ्ग रखने वाले हैं-जो प्रारम्भ से निवृत्त हैं, समाहित आत्मा वाले हैं अर्थात्-समाधिवन्त हैं ऐसे सुपात्र व्यक्ति धर्मकथा के योग्य हैं। अनुभवी पुरुष इन्हें मुक्तिमार्ग का उपदेश देते हैं। ऐसा होते हुए भी सूत्रकार फरमाते हैं कि जो महा पराक्रमी होते हैं वे ही For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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