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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४१२] [आचाराङ्ग-सूत्रम् __ संस्कृतच्छाया-- श्रद्धावतः समनुज्ञस्य संप्रवजतः सम्यगिति मन्यमानस्य एकदा सम्यग्भवति ? सम्यागति मन्यमानस्य एकदा असम्यग्भवति २ असम्यगिति मन्यमानस्य एकदा सम्यग्भवति ३ असम्यगिति मन्यमानस्य एकदा असम्यग्भवति ४ सम्यागति मन्यमानस्य सम्यग्वा असम्यग्वा सम्यग्भवति उत्प्रेक्षया ५ असम्य गिति मन्यमानस्य सम्यग्वा असम्यग्वा असम्यग्भवत्युत्प्रेक्षया ॥ शब्दार्थ-सड्ढिस्स णं श्रद्धालु । समणुन्नस्स=महापुरुषों द्वारा समझाये हुए। संपव्वयमाणस्स=त्यागमार्ग अंगीकार करते समय । समियं ति=जिनभाषित सत्य ही है ऐसा । मन्नमाणस्स-मानने वाले साधक की श्रद्धा। एगया कदाचित् । समिया अन्त तक सम्यग । होइ होती है ? समियंति मन्नमाणस्स पहिले सम्यग् मानने वाले की श्रद्धा । एगया कभी । असमिया होइ-खराब हो जाती है २ । असमियंति मन्नमाणस्स पहले जिनभाषित को असम्यग् मानने वाले की श्रद्धा । एगया कमी-पश्चात् । समिया होइ-सम्यक हो जाती है ३ । असमियंति मन्नमाणस्स-पहिले असम्यग मानने वाले की । एगया बाद में भी। असमिया होइ=असम्यग् ही रहती है ४ । समियंति मन्नमाणस्स-जिनभाषित सत्य ही है ऐसा मानने वाले के। समिया वा-सम्यग् अथवा । असमिया वा-असम्यग दिखने वाले तत्त्व । उहाए विचारणा द्वारा । समिश्रा होइ–सम्यग् परिणमते हैं । असमियंति मन्नमाणस्स-जिसकी श्रद्धा ही दूषित है उसको। समिया वा=अच्छे या । असमिया वा-बुरे । उवेहाए असम्यग् विचारणा से । असमिया होइ= असम्यग् रूप ही परणमते हैं। भावार्थ-हे जम्बू ! महापुरुषों द्वारा वस्तु स्वरूप समझ कर श्रद्धालु बने हुए बहुत से साधक दीक्षा अंगीकार करते समय "जिनभाषित ही सत्य है" ऐसा मानते हैं परन्तु उनमें से बहुत थोड़े ही इस श्रद्धा को अन्त तक टिका रखते हैं; कितनेक पहिले श्रद्धालु होते हैं और बाद में शंकाशील बन जाते हैं २ कितनेक शुरु में दृढ़ श्रद्धालु नहीं होते हैं परन्तु बाद में शुद्ध श्रद्धा वाले बनते हैं ३ कितनेक कदाग्रही पहिले और बाद में भी अश्रद्धालु ही बने रहते हैं ४ जिस साधक की श्रद्धा पवित्र है उसे अच्छे या बुरे ( सम्यग् अथवा असम्यग् ) सभी तत्व सम्यग विचारणा से सम्यग् रूप ही परिणमते हैं ५ और जिस साधक की श्रद्धा दूषित होती है उसे अच्छे. या बुरे सभी तत्त्व असम्यग् रूप ही परिणमते हैं (इस प्रकार परिणामों की विचित्रता होती है)। .. विवेचन-पूर्ववर्ती सूत्र में विचिकित्सा का त्याग करने का उपदेश दिया गया था अब इस सूत्र में परिणामों की विचित्रता के अनुसार श्रद्धा और सन्देह को लेकर विभिन्न भङ्गों का दिग्दर्शन कराते हैं। • श्रद्धा अन्तःकरण का विषय है । हृदय ही श्रद्धा का स्थान है। जो श्रद्वा बाह्य आडम्बर, राग या मोह द्वारा आती है वह सच्ची श्रद्धा नहीं है । ऐसी श्रद्धा लम्बे काल तक टिक भी नहीं सकती है। श्रद्धा For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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