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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पञ्चम अध्ययन पञ्चमोद्देशक ] [४१३ आवेशयुक्त भावना से नहीं आती; लेकिन विवेकबुद्धि द्वारा जब श्रद्धा उत्पन्न होती है तो ही वह अन्त तक टिकती है। सूत्रकार ने यहाँ श्रद्धालुओं के चार भंग बताये हैं और अन्तिम दो में उपसंहार किया है । वे भंग इस प्रकार है: (१) प्रथम श्रद्धालु और पीछे भी श्रद्धालु। (२) प्रथम श्रद्धालु और पीछे अश्रद्धालु । (३) प्रथम अश्रद्धालु और पीछे श्रद्धालु । (४) प्रथम अश्रद्धालु और पीछे भी अश्रद्धालु । प्रथम भंग में वे हैं जो महापुरुषों द्वारा वस्तु का स्वरूप समझ कर उस पर श्रद्धा करके जो साधक प्रत्रजित हुए हैं, जो "जिनभाषित सत्य ही है" यह श्रद्धा रखते हैं और शंका, कांक्षा, विचिकित्सा नहीं करते हुए अपनी श्रद्धा को उत्तरोत्तर बढ़ाते हुए अन्त तक अपनी श्रद्धा कायम रखते हैं। तीर्थंकर-भाषित वचनों में उन्हें शंका नहीं होती। द्वितीय भङ्ग में वे हैं जो प्रव्रज्या के अवसर पर तो शुद्ध श्रद्धा वाले थे बाद में न्याय शास्त्र का अभ्यास करते हुए हेतु दृष्टान्त को कुत्सित रूप से ग्रहण करके अथवा ज्ञेयतत्त्व की गहनता और सूक्ष्मता के कारण व्याकुल होकर मिथ्यात्व के उदय से शुद्ध श्रद्धा का त्याग कर देते हैं। जैसे कि जैनदर्शन सर्वनयात्मक है। उसके सिद्धान्तानुसार वस्तु अनन्तधर्मात्मक है। अतएव प्रत्येक स्तु में नित्यधर्म, अनित्यधर्म आदि अनेक धर्म भिन्न-भिन्न अपेक्षा से रहे हुए है। इस तत्त्व को न समझ कर मोह के उदय से वह शंका करने लगता है कि एक ही वस्तु नित्य और अनित्य कैसे हो सकती है। नित्य और अनित्य दोनों ही विरुद्ध धर्म हैं, ये एक दूसरे का परिहार करके ही रह सकते हैं; जो नित्य है वह अनित्य कैसे और जो अनित्य है वह नित्य कैसे ? इस प्रकार के विचार से वह शंकाशील हो जाता है लेकिन वह यह नहीं विचारता कि भिन्न-भिन्न अपेक्षा से नित्य-अनित्य धर्म एक ही वस्तु में रह सकते हैं इसमें कोई विरोध नहीं है। विरोध तो तब होता जब एक ही अपेक्षा से नित्य भी कहते और उसी अपेक्षा से अनित्य भी कहते । भिन्न भिन्न विवक्षा की अपेक्षा ऐसा कहने में विरोध नहीं है। जैसे पितृत्व और पुत्रत्व दोनों विरोधी धर्म हैं किन्तु एक ही व्यक्ति में भिन्न २ अपेक्षा से दोनों धर्म पाये जाते हैं। एक व्यक्ति अपने पिता का पुत्र है और अपने पुत्र का पिता है इस तरह वह किसी का पुत्र है और किसी का पिता है भला इस कथन में क्या विरोध हो सकता है ? इसी तरह द्रव्य की अपेक्षा एक ही पदार्थ नित्य है और पर्याय की अपेक्षा अनित्य है इसमें क्या विरोध हो सकता है ? इस तरह का विचार न करके मोह के उदय से एक-एक साधक बाद में अपनी श्रद्धा दूषित कर लेते हैं। तृतीय भंग में यह कहा गया है कि कई साधक ऐसे हैं कि जिन्हें प्रव्रज्या के अवसर पर तो 'जिन प्रवचन ही सत्य है' ऐसी दृढ़ प्रतीति नहीं होती लेकिन बाद में अनुभव प्राप्त होने पर वे सम्यग श्रद्धा वाले हो जाते हैं। जैसे पहिले तो उन्हें शंका होती है कि शब्द पौद्गलिक कैसे हो सकता है ? यह शंका गुरु आदि के उपदेश द्वारा, मिथ्यात्व के परमाणुओं के उपशम द्वारा दूर हो जाती है। उन्हें मालूम हो जाता है कि शब्द पौद्गलिक ही है। अगर ऐसा न हो तो शब्द-जोरदार शब्द-के श्रवण से कर्णेन्द्रिय का उपघात नहीं हो सकता । यह देखा जाता है कि जोर के शब्द के श्रवण से बालकों की सुनने की शक्ति का उपघात हो जाता है। अगर शब्द पौद्गलिक न हो और अमूर्त हो तो आकाश की तरह कर्णेन्द्रिय पर उसका असर नहीं होना चाहिए। ऐसा होता है अतएव शब्द पौद्गलिक है इस प्रकार पहिले की शंका दूर होने से बाद में उनकी श्रद्धा शुद्ध बनती है। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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