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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पञ्चम अध्ययन पञ्चमोद्देशक ] [ ४०७ गुण शोभा देते हैं। जैसे सरोवर समान भूभाग पर स्थित होता है इससे उसमें जल का प्रवेश और निर्गम सदा होता रहता है इससे वह कदापि सूखने नहीं पाता है और उसमें सुखपूर्वक प्रवेश हो सकता है और सुख से ही उसमें से निकला जा सकता है इसी तरह श्राचार्य भी ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र के . समान मार्ग में स्थित होते हैं, ज्ञानादि का प्रवाह सतत चालू रहता है अतएव उसका कभी अन्त नहीं श्रता । श्राचार्य से सुखपूर्वक प्रश्न कर सकते हैं और सुखपूर्वक समाधान पा सकते हैं अतएव श्राचार्य में उत्तर और अवतार भी होता है। आचार्य की प्रकृति ऐसी मधुर होती है - उनमें ऐसा मिठास होता है। कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी शंकाओं का उनसे समाधान पा सकता है। सरोवर में मिठास है और सैकड़ों व्यक्ति अपनी तृषा उससे शान्त करते हैं । इसी तरह आचार्य की मिठास से सैकड़ों व्यक्ति उनकी ज्ञानगंगा के बहते प्रवाह के जल से अपनी ज्ञानपिपासा शान्त करते हैं । जिस प्रकार सरोवर अपनी निर्मलता में अपने स्वरूप में मग्न रहता है, उसमें कदाचित् विजाती रज कर उसे मैला बनाना चाहती है तो वह अपनी निर्मल एवं अमोघ शक्ति द्वारा उसे नीचे दबा देता है और अपनी निर्मलता बनाए रखता है उसी प्रकार आचार्य अपनी आत्मा की निर्मल ज्योति में तालीन रहते हैं इस पर यदि मोहनीयादि कर्म उनकी स्वच्छता में बाधा उपस्थित करने आते हैं तो वे अपनी शक्ति द्वारा उन्हें परास्त करके नीचे दबा देते हैं और अपनी स्वच्छता - सहजता कायम रखते हैं। जिस प्रकार सरोवर स्वयं पवित्र होता है और दूसरों को भी पवित्र बनाता है उसी तरह आचार्य स्वयं पवित्र - दोषरहित होते हैं और वे दूसरे अपवित्र आत्माओं को भी पवित्र बनाते हैं। उनकी पवित्रता किसी से भड़ा जाय ऐसी कृत्रिम नहीं है । सरोवर में अपवित्र व्यक्ति भी अवगाहन ( स्नान ) करता है इससे सरोवर अपवित्र नहीं हो जाता अपितु सरोवर अपनी पवित्रता से अपवित्र को भी पवित्र करता है । इसी तरह आचार्य अपवित्र को भी पवित्र बनाते हैं । जिस प्रकार सरोवर असंख्य जलचर प्राणियों की रक्षा करता है अथवा इन जलचर प्राणियों " द्वारा स्वयं सुरक्षित रहता है इसी प्रकार आचार्य अनेक जीवों को सदुपदेश देकर नरकादि से बचाते हैं अथवा हिंसा से सर्वथा निवृत्त होने से स्वयं सुरक्षित रहते हैं। जो दूसरों को पीड़ा पहुँचाता है वह स्वयं पीड़ित होता है । जो दूसरों को मारता है वह स्वयं मरता है। जो दूसरों की रक्षा करता है वह स्वयं सुरक्षित होता है। आचार्य के लिए "सोयमज्भगए" यह विशेषण दिया गया है। इसका कारण यह है कि आचार्य श्रत (आगम) का आदान और प्रदान करते हैं । जिस प्रकार हृद में पानी आता भी है और निकलता भी है इसी तरह यद्यपि श्राचार्य ज्ञान के भण्डार होते हैं और हजारों प्राणी उनके ज्ञान की मधुरिमा कर अनुभव कर सकते हैं तदपि वे नित्य नवीन अनुभव करने की जिज्ञासा रखते हैं । जिस प्रकार सरोवर अपने चारों ओर के किनारों की मर्यादा को ध्यान में लेकर स्वरूप में स्थित रहता है। वह मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता है । वह कभी अपने विजातीय दृश्यों पर क्षुब्ध नहीं होता। उसके आस-पास स्थल भूमि होती है तो भी वह उससे घृणा या द्वेष नहीं करता इसी तरह आचार्य भी अपनी मर्यादा का कभी उल्लंघन नहीं करते। वे दुनिया में अधम, नीच, पापी कहाने वाले व्यक्तियों पर भी क्षोभ नहीं लाते । दुनिया का वातावरण उन्हें क्षुब्ध नहीं कर सकता । इनका औदार्य, इनकी निरासक्ति और स्वरूप ममता विलक्षण होती है । For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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